Book Title: Tao Upnishad Part 01
Author(s): Osho Rajnish
Publisher: Rebel Publishing House Puna

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Page 248
________________ Download More Osho Books in Hindi Download Hindi PDF Books For Free मुल्ला नसरुद्दीन को सुबह - सुबह घर के बाहर निकलते ही डाक्टर मिल गया। और डाक्टर ने पूछा नसरुद्दीन से कि नसरुद्दीन, पत्नी की तबीयत अब कैसी है? नींद आई? नसरुद्दीन ने कहा, क्या गजब की दवा दी आपने! बहुत अच्छी नींद आई और बड़ी तबीयत ठीक है। पूछा, और कुछ तो नहीं पूछना ? डाक्टर ने नसरुद्दीन ने कहा, यही पूछना है कि नींद कब खुलेगी? क्योंकि पांच दिन हो गए हैं; बड़ी शांति है, और बड़ी स्वतंत्रता है, पत्नी बिलकुल सो रही है। डाक्टर ने कहा, पांच दिन हो गए हैं! पागल, तूने खबर क्यों न की? क्या दवा ज्यादा दे दी ? नसरुद्दीन ने कहा, ज्यादा बिलकुल नहीं दी। आपने कहा था, चवन्नी पर रख कर देना। घर में चवन्नी न थी, चार इकन्नियां थीं; उन पर रख कर दे दी। बड़ी शांति है, और बड़ी स्वतंत्रता है। कहीं आओ जाओ, सब सन्नाटा है। विवाह के बाद ऐसी शांति और स्वतंत्रता मैंने नहीं जानी। पत्नी सो रही है। पुरुष को लगता है बंधा होना। और वहां से भागे तो अशांति पैदा होती है, न भागे तो बंधा हुआ मालूम पड़ता है। पुरुष का चित्त दूर में उत्सुक है। और ऐसा नहीं कि वह वहां पहुंच जाएगा तो फिर और दूर में उत्सुक नहीं होगा। वहां पहुंच कर तत्काल और दूर में उत्सुक हो जाएगा। चांद पर हम उतरे भी नहीं थे कि हमारे वैज्ञानिकों ने मंगल पर उतरने की योजनाएं बनानी शुरू कर दीं। चांद बेकार हो गया। जैसे यह बात पूरी हो गई कि चांद पर उतर गए, बात समाप्त हो गई। अब मंगल पर उतरना जरूरी है - बिना यह पूछे कि क्यों ? लाओत्से या उपनिषद के लोग, भारत में या पूरब के मुल्कों में, बिलकुल ही टाइम कांशसनेस से मुक्त थे। उन्हें समय की कोई धारणा न थी। न दूर की कोई धारणा थी। लाओत्से ने कहा है कि मेरे गांव के पार, सुना है मैंने अपने बुजुर्गों से कि नदी के उस तरफ गांव था। कुत्तों की आवाज सुनाई पड़ती थी कभी रात के सन्नाटे में। कभी सांझ को उस गांव के मकानों पर उठता हुआ धुआं भी हमें दिखाई पड़ता था। लेकिन हमारे गांव में से कभी कोई उत्सुक नहीं हुआ जाकर देखने को कि उस तरफ कौन रहता है। एक कैथोलिक संन्यासी का जीवन मैं पढ़ता था। ट्रैपिस्ट, ईसाइयों का एक संप्रदाय है संन्यासियों का। शायद दुनिया में सबसे ज्यादा कठोर संन्यास की व्यवस्था ट्रैपिस्ट संन्यासियों की है। एक नया संन्यासी दीक्षित हुआ। ट्रैपिस्ट मोनास्ट्री में, उनके आश्रम में आदमी प्रवेश करता है, तो आमतौर से जीवन भर बाहर नहीं निकलता; जब तक गुरु उसे बाहर ही न निकाल दें। दरवाजा बंद होता है, तो अक्सर सदा के लिए बंद हो जाता है। और आदमी मर जाता है तभी बाहर निकलता है। एक नया संन्यासी दीक्षित हुआ। गुरु ने उससे कहा कि यह दरवाजा सदा के लिए बंद हो रहा है। उसको कोठरी दे दी गई। और ट्रैपिस्ट उस मोनास्ट्री का नियम यह था कि संन्यासी सात साल में एक ही बार बोल सकते हैं। इसको कोठरी दे दी गई। इसको साधना के नियम बता दिए गए। फिर सात साल तक बात समाप्त हो गई। सात साल बाद वह संन्यासी अपने गुरु के पास आया और उसने कहा, और सब तो ठीक है; लेकिन जो कोठरी आपने दी है, उसका कांच टूटा हुआ है। और सात साल में मैं एक दिन नहीं सो पाया। वर्षा अंदर चली आती है, कीड़े-मकोड़े अंदर घुस जाते हैं, मच्छर अंदर आ जाते हैं। पर सात साल में एक ही दफे की आज्ञा थी; इसलिए निवेदन करता हूं, वह कांच ठीक कर दिया जाए। गुरु ने कहा, ठीक वह कांच ठीक करने लोग भेज दिए गए। सात साल बाद फिर यानी चौदह साल बाद वह संन्यासी गुरु के चरणों में आया और उसने कहा, और सब तो ठीक है, कांच तो आपने ठीक करवा दिया; लेकिन सात साल की वर्षा की वजह से, जो चटाई मुझे आपने सोने को दी थी, वह अकड़ कर बिलकुल लक्कड़ हो गई है। सात साल से सो नहीं पाया। तो कृपा करके वह चटाई बदलवा दें। गुरु ने कहा, ठीक है ! वह फिर चला गया। फिर सात साल बाद, यानी इक्कीस साल बाद वह वापस आया। गुरु ने उससे पूछा कि सब ठीक है? उसने कहा, और सब तो ठीक है; लेकिन वह चटाई बदलने जो लोग भेजे थे आपने, जब वे पुरानी उस सूख गई चटाई को लेकर निकलने लगे, तो वह कांच फिर टूट गया। सात साल से सो नहीं पाया। पानी अंदर आ रहा है। गुरु ने कहा कि निकल, तू दरवाजे के बाहर हो जा! इक्कीस साल में सिवाय शिकायत के तूने कुछ भी नहीं किया। दरवाजे से बाहर! ऐसे आदमी को हम संन्यास नहीं देते। इक्कीस साल में सिवाय शिकायतों के तेरा कोई काम ही नहीं। ये एक दूसरी दुनिया के लोग हैं! इक्कीस मिनट सहना हमें मुश्किल हो जाता, इक्कीस साल तो बहुत बड़ी बात है। सात साल में बेचारा एक शिकायत लेकर आता है; वह भी कहता है गुरु बहुत ज्यादा है। सात साल वह प्रतीक्षा करता रहता है कि ठीक सात साल बाद दिन आएगा। टाइम कांशसनेस बिलकुल नहीं होगी। नहीं तो सात मिनट मुश्किल हो जाते। इस पुस्तक का श्रेय जाता है रामेन्द्र जी को जिन्होंने आर्थिक रूप से हमारी सहायता की, आप भी हमारी सहायता कर सकते हैं -देखें आखिरी पेज

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