Book Title: Tao Upnishad Part 01
Author(s): Osho Rajnish
Publisher: Rebel Publishing House Puna

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Page 253
________________ Download More Osho Books in Hindi Download Hindi PDF Books For Free ही शाश्वत के साथ संबंध जुड़ने शुरू होते हैं। अन्यथा हमारे जो संबंध हैं, वे सामयिक के साथ हैं, शाश्वत के साथ नहीं। हमारे जो संबंध हैं, वे क्षणभंगुर के साथ हैं। क्योंकि अहंकार से ज्यादा क्षणभंगुर और कोई चीज नहीं है। तो अहंकार केवल क्षणभंगुर से ही संबंधित हो सकता है। अहंकार करीब-करीब ऐसा है। अगर हम बुद्ध के प्रतीक को लें, तो समझ में आ सके। क्योंकि बुद्ध ने अहंकार और आत्मा का एक ही अर्थ किया है। बुद्ध कहते थे, आत्मा या अहंकार ऐसा है जैसे सांझ हम दीया जलाते हैं और सुबह हम दीया बुझाते हैं, तो हम यही समझते हैं कि जो दीया हमने सांझ जलाया था, वही सुबह हमने बुझाया। वह गलत है। क्योंकि दीए की ज्योति तो प्रतिपल बुझ जाती है और नई होती चली जाती है। हम देख नहीं पाते गैप एक ज्योति धुआं होकर आकाश में चली जाती है; उसकी जगह दूसरी ज्योति स्थापित हो जाती है। दोनों के बीच का जो अंतराल है, वह इतनी तीव्रता से भरता है कि हमारी आंखें उसे पकड़ नहीं पातीं। अगर हम किसी तरह स्लो मोशन कर सकें, ज्योति को धीमे चला सकें या हमारी आंख की गति को बढ़ा सकें, तो हम बराबर देख सकेंगे कि एक ज्योति बुझ गई और दूसरी ज्योति आ गई, दूसरी बुझ गई और तीसरी आ गई। रात भर ज्योतियों की एक सीरीज, एक शृंखला जलती-बुझती है। जो ज्योति हमने सांझ को जलाई, वह सुबह हम नहीं बुझाते । सुबह हम उसी शृंखला में एक ज्योति को बुझाते हैं, जो सांझ बिलकुल नहीं थी । बुद्ध कहते थे, अहंकार एक सीरीज है। एक वस्तु नहीं है, एक शृंखला है। लेकिन इतनी तीव्रता से शृंखला चलती है कि हमें लगता है कि मैं एक अहंकार हूं। जोर से कभी आपने फिल्म में अगर पीछे प्रोजेक्टर धीमा चल रहा हो और फिल्म धीमी चलने लगी हो, तो आपको खयाल में आया होगा, स्लो मोशन हो जाता है। एक आदमी अगर फिल्म की तस्वीर पर अपने हाथ को नीचे से ऊपर तक उठाता है, तो इतना हाथ उठाने के लिए हजार तस्वीरों की जरूरत पड़ती है। हजार पोजीशंस में तस्वीरें उठानी पड़ती हैं। थोड़ी नीचे, फिर थोड़ी ऊपर, फिर थोड़ी ऊपर। और वे हजार तस्वीरें एक तेजी से घूमती हैं इसलिए हाथ आपको ऊपर उठता हुआ मालूम पड़ता है। अभी भी मोशन पिक्चर हम नहीं लेते। अभी भी पिक्चर तो हम सब लेते हैं, वह स्टेटिक है। अभी भी जो चित्र हम लेते हैं फिल्म में, वह कोई मूवी नहीं है। अभी भी सब चित्र थिर हैं, ठहरे हुए हैं। लेकिन ठहरे हुए चित्रों को हम इतनी तेजी से घुमाते हैं, एक-दूसरे के ऊपर इतने जोर से प्रोजेक्ट करते हैं, बीच की खाली जगह हम को दिखाई नहीं पड़ती, हाथ हमें उठता हुआ मालूम पड़ता है। इसलिए आपने अगर फिल्म की टुकड़न देखी हो, तो आप हैरान हुए होंगे एक से चित्र हजारों मालूम पड़ते हैं। जरा-जरा सा फर्क होता है। अगर हम एक आदमी को सीढ़ी से उतरते वक्त उसका पूरा मोशन का पिक्चर ले लें, जैसा कि अगर आप में से किसी ने पिकासो के चित्र देखें हों-जैसे सीढ़ी से उतरते हुए एक आदमी का चित्र है पिकासो का - तो आप पहचान भी नहीं पाएंगे कि आदमी कहां है। हजारों पैर सीढ़ी से उतर रहे हैं, हजारों हाथ सीढ़ी से उतर रहे हैं, हजारों सिर। वे सब मिश्रित हो गए हैं। अगर हम इतनी तेजी से देख सकें, तो आदमी हम को नहीं दिखाई पड़ेगा, सिर्फ मूवमेंट्स दिखाई पड़ेंगे। अगर मेरा हाथ नीचे से ऊपर तक उठता है, अगर आप पूरी गति को देख सकें, तो आपको हाथ तो दिखाई ही नहीं पड़ेगा, अनेक आकृतियां नीचे से ऊपर तक दिखाई पड़ेंगी, जिनमें कुछ भी तय करना मुश्किल हो जाएगा। हम बीच के अंतराल को नहीं देख पाते, इसलिए हाथ दिखाई पड़ता है। अहंकार तीव्रता से घूमती हुई फिल्म है। और प्रतिपल अहंकार पैदा होता है, जैसे प्रतिपल दीए की ज्योति पैदा होती है। इसलिए आपके पास एक ही अहंकार नहीं होता, चौबीस घंटे में हजार दफे बदल गया होता है और उसके हजार रूप होते हैं। अगर आप थोड़ा खयाल करें और अपने माइंड के प्रोजेक्टर को थोड़ा स्लो मूवमेंट दें, थोड़ी धीमी गति दें, तो आप पहचान पाएंगे। आप कमरे में बैठे हैं; आपका मालिक कमरे के भीतर आता है। तब जरा खयाल करें, आपके अहंकार की क्या वही स्थिति है, जैसा सुबह जब नौकर आपके कमरे में आया था! जब नौकर आपके कमरे में आता है, तब आपके अहंकार की स्थिति और होती है। सच तो यह है कि नौकर दिखाई ही नहीं पड़ता कि कमरे में कब आया और गया। नया हो तो दिखाई भला पड़ जाए; अगर पुराना नौकर है और एडजस्टमेंट हो गया है, तो नौकर का पता ही नहीं चलता, कमरे में कब आया और कब गया। और एक लिहाज से अच्छा है, क्योंकि नौकर का बार-बार आना पता चले तो तकलीफदेह होगा। नौकर आता है, बुहारी लगाता है, चला जाता है, आपको पता ही नहीं चलता। आप जैसे कुर्सी पर बैठे थे, वैसे ही बैठे रहते हैं। आपके गेस्चर में, आपकी मुद्रा में कोई फर्क नहीं पड़ता। नौकर न आता तो जैसे आप होते, वैसे ही आप हैं। लेकिन आपका मालिक भीतर आ जाता है, सब कुछ बदल जाता है। आप वही आदमी नहीं होते। उठ कर खड़े हो जाते हैं, स्वागत की तैयारी करते हैं। मुद्रा बदल जाती है; उदास थे, तो हंसने लगते हैं। आपका अहंकार दूसरा रूप लेता है मालिक के साथ नौकर के साथ दूसरा रूप लेता है। मित्र के साथ तीसरा रूप लेता है। शत्रु के साथ चौथा रूप लेता है। अजनबी के साथ और रूप लेता है। चौबीस घंटे आपके अहंकार को बदलना पड़ रहा है। लेकिन वह इतनी तेजी से बदल रहा है कि आपको भी कभी खयाल नहीं आता कि बदलाहट इतनी तीव्रता से हो रही है। क्षण भर में बदल जाता है। अहंकार कोई वस्तु नहीं है। अहंकार प्रतिपल संबंधों के बीच पैदा होने वाली एक घटना है-ईवेंट, नॉट ए थिंग अहंकार एक घटना है, वस्तु नहीं। और इसलिए अगर आपको जंगल में अकेला छोड़ दिया जाए, तो आपके पास वही अहंकार नहीं रह जाता जो शहर में था। क्योंकि उस अहंकार को पैदा करने वाली स्थिति नहीं रह जाती। अगर आपको जंगल में बिलकुल अकेला छोड़ दिया जाए, तो आप वही इस पुस्तक का श्रेय जाता है रामेन्द्र जी को जिन्होंने आर्थिक रूप से हमारी सहायता की, आप भी हमारी सहायता कर सकते हैं - देखें आखिरी पेज

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