Book Title: Tao Upnishad Part 01
Author(s): Osho Rajnish
Publisher: Rebel Publishing House Puna

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Page 280
________________ Download More Osho Books in Hindi Download Hindi PDF Books For Free तो लाओत्से इस सूत्र की बात कर रहा है। उसका यह मतलब नहीं है कि लाओत्से कहता है, अधोगामी हो जाओ। लाओत्से यह कहता है, ऊर्ध्वगामी होने का एक ही उपाय है कि तुम अंतिम खड़े होने को तैयार हो जाओ। एक मित्र ने पूछा है कि लाओत्से स्त्रैण-चित्त की इतनी गहराई की बात करता है, लेकिन स्त्रैण-चित्त से अब तक एक तीर्थंकर, एक अवतार, एक पैगंबर, कोई एक जीसस, कोई बुद्ध, कोई महावीर, कोई कृष्ण पैदा नहीं हुआ। होना तो उलटा ही चाहिए था। अगर स्त्रैणचित्त की ऐसी गरिमा है, तो इस जगत के सारे धर्म स्त्रैण-चित्त से निकलने चाहिए थे। लेकिन सभी धर्म पुरुषों से निकले हैं। ऐसा क्यों है? उन्होंने पूछा है। यह जरूर समझ लेने जैसी बात है। ऐसा होने का कारण है। जैसा मैंने आपसे कहा है, बायोलॉजिकल स्त्री और पुरुष का जो संबंध है, जगत में जो चीज भी पैदा होती है, उसमें भी स्त्री-पुरुष का वैसा ही संबंध है। जब बच्चा पैदा होता है, तो पुरुष सिर्फ एक्सीडेंटल, सांयोगिक काम करता है। क्षण भर का उसका सहयोग है बच्चे को पैदा करने में। लेकिन शुरुआत वही करता है, इनीशिएट वही करता है, प्रारंभ वही करता है। क्षण भर का उसका काम है, लेकिन बच्चे के जन्म की यात्रा उसी से शुरू होती है। शेष सारा काम मां करती है। उस बच्चे को नौ महीने पेट में रखेगी, उसे खून देगी, उसे जीवन देगी, उसे श्वास देगी। फिर नौ महीने पर भी समाप्त नहीं हो जाता सब कुछ। फिर उसे बड़ा करेगी, पालेगी-पोसेगी, वह सब करेगी। इस जगत में और चीजें भी जो पैदा होती हैं, वे भी ऐसे ही पैदा होती हैं। आप चकित होंगे जान कर कि महावीर जरूर धर्म को जन्म देते हैं, जीसस धर्म को जन्म देते हैं, बुद्ध...। लेकिन इस जगत में कोई भी धर्म बिना स्त्रियों के बचता नहीं। स्त्रियां ही उसे बचाती हैं, बड़ा करती हैं और फैलाती हैं। यह आपके खयाल में नहीं होगा; यह आपके खयाल में नहीं होगा। जाकर मंदिर में, मस्जिद में, चर्च में झांक कर देखें। वहां कौन है? वहां पुरुष नदारद हैं। और अगर कोई पुरुष पहुंच भी गया है, तो सिर्फ अपनी पत्नी के भय की वजह से वहां हाजिर है। ये सारे मंदिर, सारे चर्च, सारे गिरजे स्त्रियां चला रही हैं। धर्म को जन्म तो पुरुष दे जाता है, लेकिन उसकी देख-भाल, उसकी सम्हाल, उसको गर्भ में रखना और सम्हालना, और उसको बड़ा करना, स्त्रियां करती हैं। मनसविद कहते हैं कि दुनिया में कोई भी धर्म बच नहीं सकता, जिस धर्म में स्त्रियां दीक्षित न हों। वह धर्म बच नहीं सकता, क्योंकि उस धर्म को गर्भ नहीं मिलेगा। क्या आपको पता है कि महावीर ने जब लोगों को दीक्षा दी, तो हर एक पुरुष के मुकाबले चार स्त्रियों ने दीक्षा ली? और महावीर के भिक्षुओं में, संन्यासियों में, साधुओं में, तेरह हजार पुरुष थे, तो चालीस हजार स्त्रियां थीं। जीसस को पुरुषों ने सूली लगाई; लेकिन जिसने सूली से नीचे उतारा था, वह एक वेश्या थी। जब जीसस के सारे शिष्य, पुरुष शिष्य भाग गए थे भीड़ में, तब भी तीन स्त्रियां उनकी लाश के पास खड़ी थीं। अंतिम सांस जीसस ने स्त्रियों के बीच छोड़ी। और जिन्होंने उन्हें सूली से उतारा, वे स्त्रियां थीं। और जब पुरुष भाग गए थे, तब भी स्त्रियां वहां तैयार थीं। खतरा था उनकी भी मौत का। जन्म तो सब पुरुषों ने दिया; क्योंकि बायोलॉजिकल जो है, वही साइकोलॉजिकल भी है। सब धर्मों को जन्म पुरुषों ने दिया है, लेकिन सब धर्मों को गर्भ स्त्रियों ने दिया है। यह अगर खयाल में आ जाएगा, तो यह शिकायत आपके मन में नहीं उठेगी। और आज भी अगर जमीन पर धर्म जिंदा हैं, तो वह पुरुषों की वजह से नहीं। जन्म भला वे देते हों, लेकिन उनको जिंदा रखने के लिए स्त्रियों के सिवाय कोई उपाय नहीं है। किसी भी चीज को जन्म पुरुष देने की पहल कर सकता है, लेकिन उसको गर्भ नहीं दे सकता। और जन्म देने ही से किसी चीज को जन्म नहीं मिलता, गर्भ देने से ही वस्तुतः जन्म मिलता है। क्योंकि हाड़-मांस, खून-मांस-मज्जा, वह स्त्रियां देती हैं। इसलिए खयाल में नहीं आता। इसलिए खयाल में नहीं आता। सुरक्षा, विस्तार, संरक्षण, स्त्रैण-चित्त का हिस्सा है। पहल, प्रारंभ, पुरुष-चित्त का हिस्सा है। लेकिन पुरुष पहल करने के बाद ऊब जाता है, दूसरे काम में लग जाता है। अगर महावीर को फिर से जन्म मिले, तो एक बात पक्की है कि वे जैन धर्म की बात अब नहीं करेंगे। वे किसी दूसरे धर्म को जन्म दे देंगे। पुरुष रोज नए को जन्म देने के लिए उत्सुक होता है। स्त्री पुराने को सम्हालने के लिए आतुर होती है। एक अर्थ में प्रकृति इन दोनों से जीवन को स्थिर करती है। क्योंकि सिर्फ नए को जन्म देना काफी नहीं है, पुराने को सम्हालना भी उतना ही जरूरी है। अन्यथा जन्म देने का कोई अर्थ ही न रह जाएगा। इसलिए पुरुष अगर ठीक पुरुष-चित्त का हो, तो सदा ही प्रगतिशील होता है। पुरुष अगर ठीक पुरुष-चित्त का हो, तो सदा ही प्रगतिशील होता है। स्त्री अगर ठीक स्त्री-चित्त की हो, तो सदा ही परंपरावादी होती है। परंपरा का इतना ही अर्थ है: जिसको जन्म दिया जा चुका है, उसको सम्हालना है। और प्रगतिशीलता का इतना ही अर्थ है कि जिसको जन्म नहीं दिया गया है, उसे जन्म देना है। लेकिन जन्म देकर क्या करोगे, अगर कोई सम्हालने वाला उपलब्ध न हो! तो गर्भपात ही होंगे, और कुछ न होगा। एबॉर्शन्स हो जाएंगे। अगर पुरुष के ही हाथ में कोई चीज हो, तो एबॉर्शन ही होगा, और कुछ नहीं हो सकता। उसकी उत्सुकता उतनी ही देर तक है, जब तक उसने जन्म की प्रक्रिया को जारी नहीं कर दिया। प्रक्रिया जारी हो गई, वह दूसरे जन्म की प्रक्रिया पर हट जाता है। लेकिन वहीं से जीवन की असली बात शुरू होती है। वहां से स्त्री उसे सम्हाल लेती है। पुरुष-चित्त और स्त्री-चित्त दोनों एक ही गाड़ी के दो पहिए हैं। इसलिए स्त्रियों ने कोई धर्म को जन्म नहीं दिया; लेकिन स्त्रियों ने ही सारे धर्मों को बचा कर रखा है। इस पुस्तक का श्रेय जाता है रामेन्द्र जी को जिन्होंने आर्थिक रूप से हमारी सहायता की, आप भी हमारी सहायता कर सकते हैं -देखें आखिरी पेज

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