Book Title: Tao Upnishad Part 01
Author(s): Osho Rajnish
Publisher: Rebel Publishing House Puna

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Page 277
________________ Download More Osho Books in Hindi Download Hindi PDF Books For Free पड़ेगा ही। अगर ठीक नहीं करोगे, तो गलत करना पड़ेगा। शक्ति का तो उपयोग करना ही पड़ेगा। अगर सृजनात्मक न हुआ, तो विध्वंस में हो जाएगा। पच्चीस सौ साल तक लाओत्से की बात बीज की तरह पड़ी रही कि ठीक वक्त आए, तो उसमें अंकुर आ जाएं। वह वक्त आ गया है। अब हम लाओत्से की बात समझ सकते हैं कि इसके पहले कि तुम आदमी को मशीन दो, आदमी की शक्ति का सृजनात्मक उपयोग पहले बता दो। और इसके पहले कि तुम आदमी के हाथ में एटम बम रखो, आदमी की आत्मा इतनी बड़ी बना दो कि एटम बम उसके हाथ में रखा जा सके। अन्यथा एटम बम उसके हाथ में मत रखो। छोटे आदमी के हाथ में एटम बम खतरनाक होगा। अज्ञानी के हाथ में शक्ति खतरनाक हो जाती है। अच्छा है कि अज्ञानी अशक्त हो। तो कम से कम कोई दुरुपयोग नहीं होता है। लाओत्से अब समझा जा सकता है, क्योंकि हम वह सारा रास्ता चल कर देख लिए, जिसके लिए लाओत्से कहता है कि अंत में सिर्फ बीमारियां पैदा होती हैं। इसलिए मैंने लाओत्से को चुना कि हम पच्चीस सौ साल पुरानी उसकी बात-लेकिन बिलकुल कुंवारी, क्योंकि उस पर कभी नहीं चला गया-उसकी फिर चर्चा चलाएं, शायद आदमी अब राजी हो जाए। कहता हूं, शायद! क्योंकि कई बार ऐसा होता है कि हम मरने को राजी हो जाते हैं, लेकिन बदलने को नहीं। क्योंकि मरना ज्यादा आसान मालूम पड़ता है बजाए बदलने के। इसलिए कहता हूं, शायद आदमी राजी हो जाए। जरूरी नहीं है कि आदमी राजी हो ही। आदमी मरने को भी राजी हो सकता है। बदलाहट में बड़ा कष्ट होता है। और मरने को हम शहीदगी भी समझ सकते हैं कि हम शहीद हुए जा रहे हैं। और बदलाहट में अहंकार को चोट लगती है कि हमें बदलना पड़ा। आदमी एक कदम रख ले जिस दिशा में, पीछे लौटने में संकोच करता है कि लोग क्या कहेंगे! सुना है मैंने कि एक रात मुल्ला नसरुद्दीन शराबघर से बाहर निकला-पीया हुआ, डूबा हुआ। सुनसान निर्जन रास्ता है। अंधेरी रात में सिर्फ बिजली का खंभा ही एकमात्र रास्ते पर उसका गवाह है। चला रास्ते पर सोच कर कि कहीं बिजली के खंभे से न टकरा जाऊं। बिजली के खंभे से टकरा गया। क्योंकि जो आदमी किसी चीज से टकराने से बचेगा, वह उससे जरूर टकरा जाएगा। क्योंकि बचने के लिए उसे उसी का ध्यान रखना पड़ता है। देखता रहा बिजली के खंभे को कि कहीं टकरा न जाऊं, देखता रहा कि कहीं भूल-चूक न हो जाए। जिसको देखता था, उसी तरफ चलता चला गया और खंभे से टकरा गया। टकरा तो गया, उठा; पांच कदम फिर पीछे गया। और फिर उसने वही किया कि अब दुबारा न टकरा जाऊं, तो अब उसने और भी बिजली के खंभे पर ध्यान रखा। क्योंकि तर्क सीधा यही कहता है कि अगर बचना हो, तो अब पूरा ध्यान रखो। मालूम होता है, पिछली बार थोड़ा तुमने कम ध्यान रखा। अब वह पूरे रास्ते को भूल गया। अब वह बिजली का खंभा ही बस उसकी दृष्टि में रह गया, एकदम एकाग्र कि कहीं टकरा न जाऊं! और उसके कदम फिर चले और वह फिर जाकर टकराया। सिर फूट गया, लहलुहान हो गया। उठा और बोला कि बड़ी मुश्किल में हूं। आंख में आंसू आ गए। फिर तीसरी बार कोशिश की। लेकिन रास्ता नहीं बदला। इतना बड़ा रास्ता था। उस पर कहीं और भी जा सकता था। वह नहीं किया। किया उसने वही जो दो बार किया था। तीसरी बार फिर किया, अब की बार और ताकत लगा कर किया। अब जब जाकर वह सिर के बल गिरा, तो सिर उसका घूम गया और एक बिजली के खंभे कई बिजली के खंभे मालूम होने लगे। अब वह और भी घबड़ाया। आखिरी समय उसने ताकत लगा कर अपने को इकट्ठा किया और भगवान के भरोसे उसने कहा, एक और कोशिश करके देखू। फिर उसने वही किया पूरी ताकत लगा कर। और जब वह चौथी बार जाकर गिरा, तो उसने कहा, हे भगवान! निकलने का कोई रास्ता नहीं मालूम होता। ऐसा मालूम होता है कि चारों तरफ बिजली के खंभों से घेर दिया गया हूं। जहां जाता है, वहीं बिजली का खंभा मिल जाता है। वह कहीं जा नहीं रहा है, वह एक ही जगह जा रहा है। और बिजली का खंभा एक ही है। और अंधा आदमी भी बिना टकराए निकल सकता है। लेकिन वह आंख वाला आदमी, लेकिन बेहोश, नहीं निकल पाता है। हम सब आंख वाले आदमी हैं, लेकिन बेहोश। और हमारी बड़ी से बड़ी बेहोशी को लाओत्से जो नाम देता है, वह अहंकार है। वह कहता है, अहंकार हमारी बेहोशी है, क्योंकि वह हमें जगत के प्रति तथ्यात्मक नहीं होने देती। हमारे प्रोजेक्शंस को ही वह जगत पर थोप देती है। हमको नहीं देखने देती कि जगत कैसा है। हम अपने को ही जगत पर थोप लेते हैं। हम सब वही देखते रहते हैं, जो हमारा अहंकार हमें दिखलाता है। वही सोचते रहते हैं, जो सोचने के लिए मजबूर करता है। वही मान लेते हैं, जो अहंकार हमसे कहता है, मान लो। तथ्य को हम देखने नहीं जाते। और तथ्य को केवल वही देख सकता है, जिसके भीतर अहंकार का प्रोजेक्टर विदा हो गया हो। एक मित्र ने पूछा है कि यह अहंकार भी तो प्रकृति से ही पैदा होता है, तो इसको हटाने की क्या जरूरत है? लाओत्से नहीं कहता कि हटाओ। और लाओत्से यह भी नहीं कहता कि अहंकार प्रकृति से पैदा नहीं होता है। सब बीमारियां भी प्रकृति से ही पैदा होती हैं। जो कुछ भी पैदा होता है, प्रकृति से पैदा होता है। लाओत्से इतना ही कहता है कि अगर अहंकार की बीमारी को पकड़ोगे, तो दुख पाओगे। अगर दुख पाना हो, तो मजे से पकड़ो। इस पुस्तक का श्रेय जाता है रामेन्द्र जी को जिन्होंने आर्थिक रूप से हमारी सहायता की, आप भी हमारी सहायता कर सकते हैं -देखें आखिरी पेज

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