Book Title: Tao Upnishad Part 01
Author(s): Osho Rajnish
Publisher: Rebel Publishing House Puna

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Page 202
________________ Download More Osho Books in Hindi Download Hindi PDF Books For Free लेकिन जो भूल हम घड़े के साथ करते हैं, वही भूल अपने साथ करते हैं। घड़े की दीवार को समझते हैं घड़ा है, अपनी दीवार को समझते हैं मैं हूं। न भीतर के शून्य को हम कभी पहचानते कि कौन है और न घड़े के भीतर के शून्य को पहचानते कि कौन है। वह जो घड़े के भीतर आकाश है, वही है मूल्यवान। क्योंकि उसी में चीजें समाएंगी। आप जब बाजार से खरीद कर लाते हैं, तो असली में उसी शून्य के लिए खरीद कर लाते हैं। लेकिन चूंकि भरने की आतुरता है, इसलिए दीवार अनिवार्य होती है। इसलिए कुम्हार आपकी सेवा करके दीवार बना देता है। यह जो शून्य होने का समर्पण हो जाए, तो फिर कोई दीवार न बचेगी, कोई घड़ा न बचेगा। और घड़े के गिर जाने से और तो कुछ नहीं होने वाला है। भीतर का जो आकाश था घड़े का, वह बाहर के आकाश से एक हो जाएगा। बीच में कोई व्यवधान नहीं है, कोई बैरियर नहीं है, कोई बाधा नहीं है। वह जो छोटी सी आत्मा है घिरी हुई घड़े के भीतर, वह परमात्मा के साथ एक हो जाएगी। उसे हम मोक्ष कहें, निर्वाण कहें, या कुछ और कहना चाहें तो कहें। फिर घड़े की कोई जरूरत नहीं है। घड़े की जरूरत भरने के लिए है। इसलिए जब आपको कुछ भरना होता है, तब आप घड़ा खरीद कर लाते हैं; भरना ही नहीं होता, तो कोई घड़ा नहीं खरीदता। जब भरना होता है कछ, तो हम शरीर की मांग करते हैं; और जब भरना ही नहीं होता, तो शरीर का कोई सवाल ही नहीं है। लाओत्से कह रहा है कि वह शून्य आपको पैदा नहीं करना है। आप तो सिर्फ घड़ा ही पैदा करते हैं। कुम्हार भीतर के शून्य का निर्माण नहीं करता; सिर्फ शुन्य के चारों तरफ एक दीवार का निर्माण करता है। इसलिए फिर चार पैसे में मिल जाता है। नहीं तो उतना शून्य तो आप सारी मनुष्य-जाति की संपत्ति लगा दें, तो भी नहीं मिल सकता। वह जो घड़े के भीतर जो खाली आकाश है, सारी मनुष्य-जाति की सब संपत्ति और सब प्राण लग जाएं, तो भी हम उतना सा खाली आकाश पैदा नहीं कर सकते हैं। वह तो है ही। कुम्हार उसको पैदा नहीं करता, कुम्हार तो एक सिर्फ घड़े की दीवार निर्मित करता है; मिट्टी का एक घेरा बना देता है। आप मिट्टी के घड़े को उठा कर जहां भी ले जाइए, आप इस भ्रम में मत रहना कि वही आकाश उसके भीतर रहता है, जो कुम्हार के घर था। आप घड़े को लेकर चलते हैं, आकाश बदलता चलता है। आपके घड़े का आकाश साथ थोड़े ही चला आता है। सिर्फ घड़ा आप कहीं भी ले जाइए, इतना पक्का है कि इतना आकाश उसमें कहीं भी होगा। कहीं भी घड़े को फोड़ दें, वह आकाश परम आकाश में लीन हो जाता है। इसलिए बुद्ध ने एक बहुत कीमती बात कही, जो नहीं समझी जा सकी। और कीमती बातें नहीं समझी जा सकती हैं। बुद्ध ने कहा, तुम यह भी मत सोचना कि तुम्हारे भीतर वही आत्मा चलती है। इसलिए बुद्ध को नहीं समझा जा सका। जैसे मैंने कहा कि कुम्हार ने घड़ा बनाया; घड़े को आप बाजार से लेकर चले; आप एक इंच हटते हैं कि दूसरा आकाश उस घड़े के भीतर प्रवेश करता है; आप घर आते हैं, तब दूसरा आकाश, आपके घर का आकाश उसमें प्रवेश करता है। आप वही आकाश लेकर नहीं आते। लेकिन आपको मतलब भी नहीं है आकाश से, आपको भरने से मतलब है। कौन सा आकाश, कोई भी आकाश काम देगा। बुद्ध ने जब यह बात कही, तो बहुत कठिन हो गई। क्योंकि हम सब को खयाल रहा है कि एक आत्मा हमारे भीतर बैठी है, वही आत्मा। बुद्ध कहते हैं, नहीं, वह तो तुम यात्रा करते जाते हो और आत्मा बदलती चली जाती है। तुम तो घड़े हो, यात्रा करते हुए; आत्मा तो भरा हुआ आकाश है। इसलिए बुद्ध ने कहा कि जैसे दीया सांझ हम जलाते हैं, सुबह बुझाते हैं, तो कहते हैं, वही दीया बुझा दो जो सांझ जलाया था। कहने में ठीक है। लेकिन सांझ जो ज्योति जलाई थी, वह कभी की बुझ चुकी। प्रतिपल दूसरी ज्योति उसकी जगह आती चली जाती है। इसीलिए तो धुआं बनता है। पिछली ज्योति धुआं होकर उड़ जाती है, दूसरी ज्योति उसके पीछे चली आती है। मगर इतनी तेजी से आती है पिछली ज्योति और पहली ज्योति के जाने और दूसरे के आने में इतना कम अंतराल है कि हमें दिखाई नहीं पड़ता कि एक ज्योति चली गई और दूसरी आ गई। मगर सुबह जब आप बुझाते हैं, तो बुद्ध कहते हैं, अगर ठीक कहना हो तो इतना ही कहो कि उस ज्योति को बुझा दो, जो हमने सांझ जलाई थी उसकी जगह जो अब जल रही हो। संतति हो उसकी, उसकी धारा में बह रही हो। वही ज्योति तो अब नहीं बुझाई जा सकती, वह तो बुझ गई कई दफा। मगर फिर भी यह ज्योति उसी शृंखला में बह रही है। तो बुद्ध कहते हैं, आत्मा एक शृंखला है। ए सिरीज ऑफ एक्झिस्टेंसेस, यूनिट ऑफ एक्झिस्टेंस नहीं। इकाई नहीं। एक शृंखला। आप पिछले जन्म में जो आत्मा आपके पास थी, ठीक वही आत्मा आपके पास नहीं है, सिर्फ उसी धारा में है। निश्चित ही, मेरे पास और आपके पास जो आत्मा है, वे अलग हैं। लेकिन भेद दो सीरीज का है। इसको समझ लें। दो दीए हमने जलाए। रात भर दीए जलते रहे। दोनों की ज्योति बुझती चली गईं। सुबह जब हम एक दीए को बुझाते हैं, अ को, तो ब नहीं बुझ जाएगा। और अ और ब के बीच फासला है, फर्क है। फिर भी अ वही नहीं है, जो सांझ हमने जलाया था। और तब भी अ ब नहीं है। ध्यान रहे, अ वही नहीं है जो हमने सांझ जलाया था। अगर हम सांझ जलाने वाली ज्योति को कहें अ एक, तो सुबह जिस दीए को बुझा रहे हैं, वह है अ एक हजार। अगर हम ब को कहें ब एक, तो सुबह जिस दीए को बुझा रहे हैं, वह है ब एक हजार। ब की शृंखला अपनी है, अ की शृंखला अपनी है। हमारे जन्म की धारा शृंखला है। बुद्ध ने पहली दफा इस जगत को जीवंत, प्रवाहमान आत्मा का भाव दिया-डायनैमिक, रिवर-लाइक, सरित-प्रवाह जैसी। जिस दिन भी घड़ा टूटेगा, उस दिन वही आत्मा मुक्त नहीं होगी, जिसने मुक्ति चाही थी। उसी शृंखला में कोई इस पुस्तक का श्रेय जाता है रामेन्द्र जी को जिन्होंने आर्थिक रूप से हमारी सहायता की, आप भी हमारी सहायता कर सकते हैं -देखें आखिरी पेज

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