Book Title: Tao Upnishad Part 01
Author(s): Osho Rajnish
Publisher: Rebel Publishing House Puna

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Page 209
________________ Download More Osho Books in Hindi Download Hindi PDF Books For Free नहीं, दूसरी तरफ बात नहीं है, आपकी ही तरफ बात है। इसको साफ करने के लिए लाओत्से कहता है, प्रकृति सदय नहीं है। एक लिहाज से यह बहुत कठोर है बात, क्योंकि हम बेसहारा हो जाते हैं। हमारे हाथ की सारी की सारी क्षमता टूट जाती है, अगर कोई कह दे कि प्रकृति सदय नहीं है। अगर मैं गड्ढे में गिर रहा होऊंगा, तो प्रकृति से कोई आवाज न आएगी कि रुक जाओ। यह कठोर लगती है बात और मन को धक्का भी लगता है। इस धक्के की वजह से ही लाओत्से बहुत अधिक लोगों की समझ के बाहर पड़ा। क्योंकि उसने आपकी किसी कमजोरी को पूरा करने का कोई वचन नहीं दिया है। लाओत्से के पीछे धर्म बनाना बहुत मुश्किल है। क्योंकि धर्म तो तभी बनता है, जब आपकी कमजोरी का शोषण किया जा सके। जो आप चाहते हैं वही कहा जाए कि परमात्मा भी चाहता है, जो आप पाना चाहते हैं वही देने को परमात्मा भी राजी हो, तो धर्म निर्मित होते हैं। लाओत्से के पीछे कोई धर्म निर्मित नहीं हो सका। लाओत्से की हैसियत का आदमी वह अकेला है, जिसके पीछे कोई धर्म निर्मित नहीं हो सका, कोई चर्च नहीं खड़ा हो सका। कैसे खड़ा होगा? क्योंकि लाओत्से कहता है, प्रकृति सदय नहीं है। प्रार्थना कट गई, स्तुति कट गई, परमात्मा कट गया; आप अकेले रह गए। और अकेले रहने में हमें इतना डर लगता है कि झूठा भी साथ मिल जाए, तो मन को राहत होती है। नहीं हो कोई साथ, मेरी नाव बिलकुल खाली है और मैं हूं; आंख बंद करके भी सपना देख लूं कि कोई साथ है नाव पर, अकेला नहीं हूं, तो भी राहत मिलती है। शायद इसीलिए आदमी सपने देखता है। और सपने सोकर ही देखता हो, ऐसा नहीं; जाग कर भी देखता है। जिन्हें हम धर्म कहते हैं, वे हमारे फैलाए गए बड़े-बड़े स्वप्न हैं। जिनमें हमने वही देख लिया है, जो हम चाहते हैं। और बड़े सस्ते में देख लिया है। चूंकि एक आदमी एक बार भोजन करता है, या एक आदमी एक लंगोटी पहनता है, या एक आदमी नग्न खड़ा हो जाता है, या एक आदमी रोज मंदिर की घंटियां बजा देता है, तो वह सोचता है, मोक्ष सुनिश्चित हुआ, निश्चित हुआ स्वर्ग। नहीं, प्रकृति सदय नहीं है। लेकिन दया की भीख कौन मांगते हैं? दया की भीख सदा ही गलत लोग मांगते हैं। ठीक आदमी दया की भीख नहीं मांगेगा। मिलती भी हो, तो इनकार करेगा। क्योंकि जो दया करके पाया जाता है, वह कभी पाया ही नहीं जाता। जो दया से मिलता है, वह कभी मिल ही नहीं पाता, वह हमारे प्राणों का कभी हिस्सा नहीं हो पाता। जो हमारे श्रम से ही आविर्भूत होता है, वही केवल हमारी संपदा है। लाओत्से कहता है, प्रकृति सदय नहीं है। कठोर है? कठोर भी नहीं है। प्रकृति सिर्फ आपके प्रति निरपेक्ष है। आपके प्रति प्रकृति का कोई भाव नहीं है, निर्भावी है। पक्ष-विपक्ष नहीं है। हम सदा तोड़ कर सोचते हैं, प्रकृति मित्र है या शत्रु है। नहीं प्रकृति मित्र है, नहीं प्रकृति शत्रु है। प्रकृति आपका कोई लेखा-जोखा नहीं रखती। आप एकाउंटेबल ही नहीं हैं। आपका कोई हिसाब नहीं रखा जाता है। आप न होते, तो कुछ कमी नहीं होती। आप होते हैं, तो कुछ बढ़ नहीं जाता है। पानी पर खींची गई लकीरों जैसा हमारा होना है; पानी को कोई अंतर नहीं पड़ता। लकीर खिंच भी नहीं पाती कि मिट जाती है और बुझ जाती है। सदय नहीं है, इसका अर्थ? इसका अर्थ है, आपके प्रति कोई भाव नहीं है। यह एक दृष्टि से कठोर, दूसरी दृष्टि से बहुत ही आनंदपूर्ण बात है। क्योंकि अगर प्रकृति भी भाव रखती हो, तो वहां भी पक्षपात हो ही जाएगा। फिर कोई वहां भी धोखा देने में समर्थ हो जाएगा। फिर वहां कोई पाप भी करेगा और स्वर्ग भी पहुंच जाएगा, और कोई पुण्य भी करेगा और नर्क में सड़ेगा। अगर कोई भी भाव है अस्तित्व के पास, तो चुनाव शुरू हो जाएगा। इसलिए सारे दुनिया के धर्म, जो कि चुनाव पर ही खड़े हैं और प्रकृति के सदय होने की धारणा पर खड़े हैं, निर्णय करते हैं। अगर हम मुसलमान से पूछे कि गैर-मुसलमान का क्या होगा? तो मुसलमान को लगता है, भटकेगा दोजख में, कोई उपाय नहीं है गैर-मुसलमान के लिए। ईसाई से पूछे, गैर-ईसाई का क्या होगा? तो जो ईसा के पीछे नहीं है, वह अंधेरे में भटक जाएगा! परमात्मा ने तो अपना बेटा भेज दिया। अब जो उसके बेटे के साथ हो जाएंगे, वे बच जाएंगे। जो उसके बेटे के साथ नहीं होंगे, वे मिट जाएंगे। अगर परमात्मा का कोई बेटा है, तो उपद्रव होगा। और अगर परमात्मा के बेटे के पक्ष में होने की सुविधा है और अस्तित्व भी उसके पक्ष में हो जाएगा, तो फिर कठिनाई है। नहीं, लाओत्से कहता है, प्रकृति का कोई बेटा नहीं। प्रकृति का कोई अपना नहीं, क्योंकि प्रकृति का कोई पराया नहीं है। प्रकृति किसी को स्वीकार नहीं करती, क्योंकि प्रकृति किसी को इनकार नहीं करती है। प्रकृति का कोई पक्ष नहीं है; प्रकृति पक्षधर नहीं है। यह आनंद की बात है एक अर्थ में। इसलिए जिसकी जितनी सामर्थ्य और जिसका जितना बल, वही हो जाएगा। कोई पक्षपात नहीं होगा। अगर नर्क होगा, तो मेरा अर्जन। और अगर स्वर्ग होगा, तो मेरा अर्जन। न मैं किसी को दोषी ठहरा पाऊंगा और न किसी को उत्तरदायी। न मैं किसी को धन्यवाद दे पाऊंगा और न किसी को गालियां दे पाऊंगा कि तुम्हारी वजह से सब गड़बड़ हो गई है। इस पुस्तक का श्रेय जाता है रामेन्द्र जी को जिन्होंने आर्थिक रूप से हमारी सहायता की, आप भी हमारी सहायता कर सकते हैं -देखें आखिरी पेज

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