Book Title: Tao Upnishad Part 01
Author(s): Osho Rajnish
Publisher: Rebel Publishing House Puna

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Page 217
________________ Download More Osho Books in Hindi Download Hindi PDF Books For Free ताओ उपनिषाद (भाग-1) प्रवचन-17 विरोधों में एकता और शून्य में प्रतिष्ठा-(प्रवचन-स्तहरवां) अध्याय 5: सूत्र 2 स्वर्ग और पृथ्वी के बीच का आकाश कैसा धौंकनी की तरह है। इसे रिक्त कर दो, फिर भी इसकी शक्ति अखंडित रहती है; इसे जितना ही चलाओ, उतनी ही हवा निकलती है। शब्द-बाहुल्य से बुद्धि निःशेष होती है। इसलिए अपने केंद्र में स्थापित होना ही श्रेयस्कर है। जीवन बहुत से विरोधी आधारों पर निर्मित होता है। जैसा दिखाई पड़ता है, वैसा ही नहीं; दिखाई पड़ने वाले तत्वों के पीछे न दिखाई पड़ने वाले तत्व होते हैं, जो बिलकुल ही विपरीत होते हैं। विपरीत का हमें स्मरण भी नहीं आता। यदि हम जन्म देखते हैं, तो मृत्यु की हमें कोई सूचना नहीं मिलती। और अगर जन्म के क्षण में कोई मृत्यु का खयाल करे, तो हम उसे पागल कहेंगे। लेकिन जन्म के पीछे मृत्यु छिपी रहती है। और जो जानता है, वह जन्म में मृत्यु को तत्क्षण देख लेता है। ऐसा ही जब कोई मर रहा हो, तो उसकी मरणशय्या के पास खड़े होकर हमें उसके जन्म का कोई भी खयाल नहीं आता। लेकिन हर मृत्यु के पीछे जन्म की यात्रा शुरू हो जाती है। और जब कोई सुंदर होता है, तो हमने कभी नहीं सोचा कि कुरूप हो जाएगा। और जब कोई युवा होता है, तो हमने युवा के सौंदर्य में वार्धक्य के पदचाप नहीं सुने। और जब कोई सफल होता है, तो असफलता निकट है, यह हमारे स्मरण में नहीं आता। और जब कोई राज-सिंहासनों पर प्रतिष्ठित होता है, तो पृथ्वी पर गिर जाने की और धूल-धूसरित हो जाने की घड़ी बहुत निकट है, इसका हमें कोई स्मरण नहीं होता है। जीवन विपरीत को अपने में छिपाए हुए है। इसलिए ज्ञानी वह है जो प्रतिपल विपरीत को भी देखने में समर्थ है। जो जीवन में मृत्यु को देख लेता है और अंधकार में प्रकाश को और सफलता में असफलता को और सौंदर्य में कुरूप को और जो प्रेम में घृणा के बीज देख लेता है और जो प्रशंसा में निंदा की यात्रा देख लेता है, वही ज्ञानी है। लाओत्से इस सूत्र में इस विरोध की तरफ सबसे गहरी खबर देता है। इस विरोध का सबसे गहरा तल क्या है? कभी आपने लुहार की दुकान पर धौंकनी देखी है? लाओत्से उसका उदाहरण लेता है। वह कहता है, जब धौंकनी बिलकुल खाली हो जाती है, रिक्त, तब ऐसा मत समझना कि वह शक्तिहीन हो गई। सच तो यह है कि खाली धौंकनी में ही शक्ति होती है, भरी धौंकनी में शक्ति नहीं होती। लुहार धौंकनी को खाली इसीलिए करता है, ताकि वह शक्तिशाली हो जाए। फिर उसी शक्ति, उस खालीपन की शक्ति से, पावर ऑफ एम्पटीनेस से और हवा भीतर खींची जाती है। भरी हुई धौंकनी हवा को भीतर नहीं खींच सकती। भरी हुई धौंकनी इतनी भरी हुई है कि अब उसमें और कुछ भरा नहीं जा सकता। भरी हुई धौंकनी भरे होने की आखिरी सीमा पर है। उसमें अब और शक्ति नहीं बचती। वह निर्वीर्य हो गई, वह निःशक्त हो गई। अब उससे कुछ काम नहीं लिया जा सकता। लेकिन जब लुहार की धौंकनी खाली होती है, तब शक्तिशाली होती है। अब उसे फिर भरा जा सकता है। मत्य के क्षण में आदमी की धौंकनी दब गई, खाली हो गई। अब फिर जीवन प्रकट हो सकता है। मत्य के क्षण में, जो हवा थी आपके भीतर, निकल गई। अब आप फिर जीवन की हवाओं को भीतर भर सकेंगे। कभी आपने सोचा कि जब आपकी श्वास बाहर जाती है, तभी आप जीवन को भीतर अपशोषित करने में समर्थ हो पाते हैं! जब श्वास आपके बाहर होती है, तब आप शक्तिशाली होते हैं, खाली नहीं। श्वास से खाली होते हैं, लेकिन जीवन को खींचने की क्षमता आपकी प्रगाढ़ हो जाती है। लाओत्से कहता है कि धौंकनी जब खाली हो लुहार की, तो ऐसा मत समझना कि शक्तिहीन हो गई। खींचेगी वायु को भीतर, फेंकेगी वायु को बाहर। वह जो खालीपन है, वह भरे होने की तरफ एक कदम है। लेकिन हमें खालीपन में सिर्फ खालीपन दिखाई पड़ता है, और भरेपन में सिर्फ भरापन दिखाई पड़ता है। लाओत्से कहता है, खालीपन भरेपन की तरफ एक कदम है और भरापन खाली होने की पुनः तैयारी है। और जीवन के ये दाएं और बाएं पैर हैं। एक पैर से जीवन नहीं चलता। श्वास भीतर आती है, वह भी जीवन का एक पैर है। और श्वास बाहर जाती है, वह भी जीवन का एक पैर है। अगर दो श्वास को देखें, तो खयाल में आ जाएगा कि बाहर जाती श्वास मौत जैसी है, भीतर आती श्वास जन्म जैसी है। जो लोग श्वास के विज्ञान को गहराई से जानते हैं, वे कहते हैं, हर श्वास पर हम मरते हैं और पुनर्जीवित होते हैं। लेकिन मृत्यु का अर्थ शक्तिहीन हो जाना नहीं है। मृत्यु का अर्थ केवल इतना ही है कि हम पुनः शक्तिशाली होने के लिए तैयार हो गए; हमने पुराने को फेंक दिया और नए को भरने की हमारी क्षमता फिर स्पष्ट हो गई है। लाओत्से कहता है कि स्वर्ग और पृथ्वी के बीच भी अस्तित्व धौंकनी की भांति चलता है। स्वर्ग और पृथ्वी के बीच भी अस्तित्व धौंकनी की भांति चलता है। पूरे जगत को हम जाती और आती हुई श्वास की व्यवस्था में समझ सकते हैं-पूरे जगत को! अगर सुबह सूरज का निकलना भरती हुई श्वास है, तो सांझ सूरज का डूब जाना फिर रिक्त होती श्वास है। पूरा जगत श्वास से स्पंदित है-धौंकनी की भांति। इस पुस्तक का श्रेय जाता है रामेन्द्र जी को जिन्होंने आर्थिक रूप से हमारी सहायता की, आप भी हमारी सहायता कर सकते हैं -देखें आखिरी पेज

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