Book Title: Tao Upnishad Part 01
Author(s): Osho Rajnish
Publisher: Rebel Publishing House Puna

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Page 223
________________ Download More Osho Books in Hindi Download Hindi PDF Books For Free लाओत्से कहता है, शून्य अखंड ऊर्जा है। लाओत्से निरंतर एक कहानी कहा करता था। वह कहा करता था कि मैंने उस संगीतज्ञ का नाम सुना, जिसने वर्षों से कोई गीत नहीं गाया। तो मैं उस संगीतज्ञ की खोज में गया, क्योंकि ऐसे आदमी को लोग संगीतज्ञ क्यों कहते हैं जिसने वर्षों से कोई गीत नहीं गाया! और जब मैं उस संगीतज्ञ के पास पहुंचा, तो न तो उसके पास कोई साज था, न कोई सामान था। वह एक वृक्ष के नीचे बैठा था । और मैंने उस संगीतज्ञ से पूछा, सुना है मैंने कि तुम बहुत बड़े संगीतज्ञ हो, लेकिन कोई साज-सामान नहीं दिखाई पड़ता? उस संगीतज्ञ ने कहा, साज-सामान की तभी तक जरूरत थी, जब तक संगीत खुद पैदा न होता था और मुझे पैदा करना पड़ता था। अब संगीत खुद ही पैदा होता है। गाता था तब तक, जब तक गीत स्वयं न आते थे। अब गीत स्वयं आ जाते हैं। लाओत्से ने कहा, लेकिन मुझे सुनाई नहीं पड़ता ! संगीतज्ञ ने कहा, रुकना पड़ेगा। मेरे पास रुको, धीरे-धीरे सुनाई पड़ने लगेगा। और लाओत्से संगीतज्ञ के पास रुका और संगीत सुन कर लौटा। जब उसके शिष्यों ने पूछा कि सुना संगीत? कैसा था संगीत? लाओत्से ने कहा, वह संगीत शून्य का था। वहां शब्द नहीं थे। वहां शून्य का सन्नाटा था। और आज मैं तुमसे कहता हूं कि जिस संगीत में शब्द होते हैं, वह संगीत नहीं, केवल शोरगुल है; संगीत तो वह है जहां शब्द शून्य हो जाते हैं, मौन सन्नाटा ही रह जाता है। शोरगुल है जहां, शब्द है वहां । पर आपको खयाल में न होगा। संगीत... अभी आप सितार सुनते थे। अगर आप समझते हों कि जब सितार पर एक ध्वनि उठती है, तब संगीत होता है, तो आप गलती में हैं। जब सितार पर एक ध्वनि उठती है और दूसरी ध्वनि उठती है, और तीसरी ध्वनि उठती है, उनके बीच जो गैप होते हैं, संगीत वहीं है। वे जो खाली जगह होती हैं। इसलिए जो ध्वनियों को सुनता है, वह संगीत नहीं सुनता; वह केवल स्वर सुन रहा है। जो दो स्वरों के बीच में खाली जगह को सुनता है, वह संगीत को सुनता है। जितना महान संगीत होता है, उतना खाली जगह पर निर्भर होता है। सुबर्ट के संबंध में मैंने सुना है कि वह अपना वायलिन बजा रहा था। सुबर्ट जब भी बजाता था, तो बीच में लंबे इंटरवल होते थे। एक संगीत का शिक्षक-शिक्षक जैसे दयनीय होते हैं, वैसा ही। शिक्षकों को सब कुछ पता होता है, जो बेकार है वह । नियम उन्हें पूरे पता होते हैं; नियम के बाहर जो सार्थक है, उसका उन्हें कोई पता नहीं होता। शिक्षक सामने ही बैठा था। सुबर्ट ने बजाना शुरू किया। फिर सुबर्ट रुक गया। हाथ उसके ठहर गए और तार मौन हो गए। क्षण, दो क्षण, तीन क्षण! उस शिक्षक को लगा कि शायद यह आदमी भूल गया, अटक गया। उसने कहा, जो आता हो, वह बजाओ। शिक्षक ने कहा, जो आता हो, वह बजाओ। छोड़ो जो न आता हो । सुबर्ट ने अपनी आत्मकथा में लिखा है कि पहली दफे मुझे पता चला कि मैं किन लोगों के सामने बजा रहा हूं। क्योंकि जो मैं बजा रहा था, वह तो केवल द्वार था। जब मैं रुक गया था, तब संगीत था। लेकिन वह शिक्षक बोला, अगर न आती हो यह यह गीत, यह लय न आती हो तो दूसरा शुरू करो। कहते हैं, सुबर्ट ने उस दिन वहीं अपना साज पटक दिया और घर लौट गया और दुबारा उसने साज हाथ में नहीं लिया। लाखों लोगों ने प्रार्थना की। उसने कहा कि नहीं, किनके सामने बजाता हूं! इन्हें संगीत का कोई पता ही नहीं है। ये समझते हैं स्वरों के शोरगुल को संगीत। वह तो केवल प्रारंभ है। वह तो केवल आपको जगाने के लिए है कि आप सो न जाएं। फिर जब आप जाग गए, तब वह चुप हो जाना चाहिए, फिर मौन में सरक जाना चाहिए। बुद्ध कहते थे कि जो मैं कह सकता था, वह मैंने कहा; लेकिन वह असली बात नहीं है। जो मैं नहीं कह सकता था, वह मैंने नहीं कहा है; वही असली बात है। इसलिए जो मेरे कहने को सुनते रहे हैं, वे मुझे नहीं समझ पाएंगे; जिन्होंने मेरे न कहने को भी सुना है, वही मुझे समझ सकते हैं। न कहने को जिन्होंने सुना है! न कहना भी सुना जा सकता है? निश्चित सुना जा सकता है। असल में, कहने की सार्थकता यही है कि दोनों तरफ कहने का किनारा बन जाए और बीच में न कहने की नदी बह सके। स्वर का उपयोग यही है कि दोनों तरफ तट बन जाएं और बीच में संगीत की गंगा बह सके। वह तट बनाने के लिए है। लेकिन तट को जिसने गंगा समझा, वह गंगा को नहीं समझ पाएगा। वह गंगा तक कभी पहुंच भी नहीं पाएगा। लाओत्से कहता है, पृथ्वी और स्वर्ग के बीच धौंकनी की तरह शून्य आकाश है, और वही अखंड ऊर्जा है। इसे जितना ही चलाओ, इस शून्य को जितना ही चलाओ, उतनी ही ऊर्जा पैदा होती है। शून्य को चलाओ जितना ही, उतना ही प्राण जन्मता है। लेकिन हम शून्य को चलाना नहीं जानते। हम शून्य होना भी नहीं जानते | इस शून्य को होना और शून्य को चलाने का उपाय लाओत्से कहता है, “शब्द - बाहुल्य से बुद्धि निःशेष होती है।' जितने ज्यादा शब्द भीतर, उतनी बुद्धि क्षीण हो जाती है। उतनी बुद्धि पर जंग लग जाती है । इस पुस्तक का श्रेय जाता है रामेन्द्र जी को जिन्होंने आर्थिक रूप से हमारी सहायता की, आप भी हमारी सहायता कर सकते हैं देखें आखिरी पेज

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