Book Title: Tao Upnishad Part 01
Author(s): Osho Rajnish
Publisher: Rebel Publishing House Puna

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Page 212
________________ Download More Osho Books in Hindi Download Hindi PDF Books For Free उसके गुरु ने डंडा नीचे रख दिया और उसने कहा, तो शायद तुझे मारने की जरूरत मुझे नहीं पड़ेगी। रिझाई ने पूछा, बात क्या है? उसके गुरु ने कहा, जो भी मेरे पास दया की भीख मांगते आते हैं, मेरा अस्तित्व उनके प्रति कठोर हो जाता है। मैं नहीं होता, बस ऐसा हो जाता है। उस तरफ भीख, और इधर मैं कठोर हो जाता हूं! उस तरफ मालकियत, इधर मैं सदय हो जाता हूं! लेकिन असली बात यह है, उस बूढ़े फकीर ने कहा कि मैं दोनों के बाहर हो गया हूं। अपनी तरफ से कुछ भी नहीं होता। जो हो जाता है, उसके लिए मैं राजी हो जाता हैं। अगर मेरा हाथ डंडा उठा लेता है, तो मैं डंडा मारता हैं। अभी हाथ ने डंडा छोड़ दिया, तो मैंने डंडा छोड़ दिया है। असल में, संत सहज होते हैं। सहज का अर्थ आप समझ लें। अकारण, जो भीतर से उनका अस्तित्व करता है, वे उसी के साथ बहते हैं। च्वाइसलेस फ्लोइंग! कोई चुनाव उनका नहीं है। सदय वे नहीं हो सकते, दया वे नहीं कर सकते। कठोर भी वे नहीं हो सकते। लेकिन कभी वे दयावान मालूम होते हैं, वह हमारी समझ है। और कभी वे कठोर मालूम होते हैं, वह भी हमारी समझ है। और हमारी समझ पागल की समझ है। हम जो समझते हैं, वैसा शायद ही कभी होता है। एक मित्र दो महीने पहले मेरे पास आए। कोई पांच वर्ष से आते हैं। सदा आकर वह मुझे कहते हैं कि आपको दो-चार दिन नहीं देख पाता, आपके दर्शन नहीं कर पाता, तो मन बड़ा बेचैन हो जाता है। ऐसा उन्होंने इतनी बार कहा है कि मुझे मान लेना चाहिए कि वे ठीक कहते होंगे। आपके दर्शन नहीं कर पाता हूं दो-चार दिन, तो मन बड़ा बेचैन हो जाता है, यह उन्होंने इतनी बार कहा है कि कोई कारण नहीं दिखाई पड़ता कि इससे भिन्न कोई बात होगी। बहुत बार उनसे कहना चाहा, लेकिन मैंने नहीं कहा। इस बार दो महीने पहले आए थे, तो मैंने उनसे कहा कि एक बात पछं, इतने दिन से आप आते हैं, कहते हैं, आपका दर्शन न करूं तो मन बड़ा बेचैन हो जाता है। कहीं ऐसा तो नहीं है कि आप मुझे दर्शन नहीं दे पाते दो-चार दिन तो मन बेचैन हो जाता हो? उन्होंने कहा, आप कैसी बात कर रहे हैं? कभी नहीं, ऐसा खयाल ही मुझे कभी नहीं उठा। खयाल न भी उठा हो; खयाल का उठना जरूरी नहीं है। हम अपने को धोखा देने में इतने कुशल हैं! मैंने कहा, फिर भी सोचना। उन्होंने कहा, सोचने का कोई सवाल ही नहीं है। आपको नहीं देख पाता, आपकी चर्चा नहीं कर पाता, आपका प्रवचन नहीं सुन पाता, आपकी किताब नहीं पढ़ पाता जिस दिन, उस दिन मन बड़ा बेचैन हो जाता है। पंद्रह दिन बाद वे फिर आए। चार मित्रों के साथ आए थे। मैंने तीन को देखा, उनको नहीं देखा। तीन से बात की, उनसे बात नहीं की। तीन को माना कि वे कमरे में हैं, उनको नहीं माना कि वे कमरे में हैं। उन्होंने पैर छुए, मेरी तरफ देखा। मैंने ऐसे देखा, जैसे वहां कोई नहीं है। बेचैन हो गए। एक कोने में बैठ गए। मैंने देखा कि वे आज दूसरे आदमी हैं। सब बदल गया है। मुझे पूछना चाहिए था, पत्नी कैसी है? बेटी कैसी है? बेटा कैसा है? तो वे समझते थे कि मेरा दर्शन करने आए हैं। दर्शन तो आज भी मेरा हुआ, लेकिन उनका दर्शन मैंने नहीं किया। जाते वक्त पैर छूकर वे नहीं गए। जाते वक्त उन्होंने जब दरवाजा लगाया, तो मैं समझा कि यह दरवाजा सदा के लिए लगा गए हैं, अब इस दरवाजे के भीतर नहीं आएंगे। नहीं आए। किताबें मेरी फेंक दी हैं, किसी ने मुझे खबर दी। अब मेरे बिना काम मजे से चल रहा है। इतना ही नहीं, अब जब तक वे दिन में दोत्तीन घंटे लोगों के पास जाकर मुझे गालियां नहीं दे लेते, तब तक उनको चैन नहीं पड़ती है। क्या हो गया? वे वर्षों से कहते थे कि आपके दर्शन के बिना चैन नहीं पड़ती। मैं जानता था कि मेरा दर्शन नहीं है असली बात। लेकिन ऐसा मैं न कहूंगा कि वे जान कर ऐसा कर रहे थे। नहीं, उन्हें पता ही नहीं था। हम इतने धोखेबाज हैं, खुद को भी पता नहीं होने देना चाहते हैं। खुद को भी पता नहीं होने देते हैं कि हमारे भीतर क्या है। उस दिन जब मैंने उनको दस मिनट तक ध्यान ही नहीं दिया, तब कितना कचरा और कितना घास उसी वक्त उसी कमरे में उनसे गिर गया, उसका हिसाब लगाना मुश्किल है। उनके जाने के बाद कमरा बोझिल और भारी हो गया। अभी एक घटना घटी है। एक महिला मुझसे मिलने आई। दस मिनट-उसके मन में बहुत कुछ था, किसी के प्रति क्रोध,र ईष्या, वैमनस्य-वह सब उसने निकाला। वह तो हलकी होकर चली गई। ठीक उसके पीछे एक युवक प्रवेश किया। उस युवक ने कमरे के भीतर आकर बेचैनी से देखा और उसने कहा कि आई फील वेरी स्ट्रेंज, बात क्या है? मैंने उससे कहा, तू घबड़ा मत, थोड़ी देर बैठ। अभी एक महिला थोड़ी सा घास यहां गिरा गई है; थोड़ी हवा भारी है। अभी उसका रोग चारों तरफ प्रतिध्वनित है। एक पांच मिनट बिखर जाने दे, फिर ठीक हो जाएगा। कचरा हमारे शरीर में ही नहीं है, मन में और भी ज्यादा है। और शरीर से ही मल-मूत्र का त्याग होता हो, ऐसी भूल में मत पड़ना, मन से भी मल-मूत्र का दिन-रात त्याग करना पड़ता है। इसलिए आप किसी के प्रति चौबीस घंटे प्रेम से भरे नहीं रह सकते। नहीं तो मल इस पुस्तक का श्रेय जाता है रामेन्द्र जी को जिन्होंने आर्थिक रूप से हमारी सहायता की, आप भी हमारी सहायता कर सकते हैं -देखें आखिरी पेज

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