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वे कुछ थोड़े डरे। पत्नी उनके साथ थी, उसकी तरफ देखा। मैंने उनकी पत्नी को कहा कि तुम जाओ। तुम्हारे सामने शायद वे अपनी बुद्धिमानी न छोड़ पाएं। तुम हटो। वे कहने लगे, डर से ही कह रहा हूं। मुझे भी ऐसा लगता है कि अगर मैं भी कूद पडूं, तो बहुत उपद्रव मचाऊंगा।
फिर मैंने कहा, उसे मचाओ। एक दफे उसे मचा कर देखो। तुम अपनी नई ही सूरत से परिचित होओगे। वही तुम्हारी असली सूरत है। वक्त-बेवक्त पर वह निकल कर बाहर आ जाती है। लेकिन तब तुम उसके मालिक नहीं हो सकते। क्योंकि वह क्षण भर को आती है, फिर छिप जाती है।
मनोवैज्ञानिक कहते हैं, क्रोध जो है, वह टेम्प्रेरी मैडनेस है-टेम्प्रेरी! है तो मैडनेस पूरी, टेम्प्रेरी है। थोड़ी देर रहती है, इसलिए आपको पता नहीं चलता। फिर निकल गई। परमानेंट हो जाए, आप पागल हो गए। लेकिन जो टेम्प्रेरी है, वह कभी भी परमानेंट हो सकता है।
मैंने उनसे कहा, आप करें।
उन्होंने कहा, हिम्मत जुटाऊं, कोशिश करूं।
मैंने कहा, कोशिश-हिम्मत की बात नहीं है। आप तो आंख पर पट्टी बांध कर और खड़े हो जाएं। और जब आने लगे, तब भूल जाएं कि आप बड़े अधिकारी हैं और बड़े पढ़े-लिखे हैं और समझदार हैं।
तीसरे दिन वे कूद रहे थे। वह दूसरा ही व्यक्तित्व था। लौट कर उन्होंने मुझे कहा कि मैं इतना हलका हो गया हूं कि उड़ जाऊं। इतना हलका हो गया हूं! भीतर से न मालूम कितनी बीमारी बाहर निकल गई है। और अब मैं आपकी बात ज्यादा ठीक से समझ सकूँगा कि आप क्या कह रहे हैं।
तो हमारे दिमाग पर जो बैठा हुआ एक पहरा है तथाकथित समझदारी का, उसे तोड़ना पड़े तो आपके भीतर वह समझ आ सकेगी। तो पहले यह तथाकथित समझ को तोड़ने के लिए कुछ करें।
जुन्नैद नाम का सूफी फकीर था। उसके पास कोई साधक आता, तो पहले उससे वह कोई पागलपन करवाता। कोई पागलपन करवाता! उससे कहता कि जाओ बाजार में, सड़क पर खड़े हो जाओ और लोगों से कहो कि जो मुझे एक जूता मारेगा, उसको मैं एक आशीर्वाद दूंगा! और जो जूता मुझे नहीं मारेगा, सम्हल कर जाए, एक अभिशाप! वह आदमी कहता, आप यह क्या कह रहे हैं? पर वह कहता, पहले तुम एक बस्ती का चक्कर लगाओ; फिर हमारीतुम्हारी बात हो सकेगी। तुमसे हमारा मामला नहीं चलेगा। तुम जरा दो-चार-दस जूते खाकर आओ। फिर-इसको गिर जाने दो, जो तुम्हारे ऊपर बैठा है-फिर जरा हम भीतर से सीधी-सीधी बात हो सकेगी।
समझ की भीतरी गहराई के लिए कहता है लाओत्से। वह ठीक कहता है कि डालो कांटा समझ का, तो क्रांति की मछली पकड़ में आएगी। लेकिन आप अपने घर की बालटी में बैठे हैं कांटा डाले। उसमें नहीं आएगी। आपको खुद ही पता है कि इस बालटी में कोई मछली ही नहीं है। आप जिस बुद्धि में पकड़ने चल रहे हैं क्रांति को, वहां कोई क्रांति नहीं है। जिसको आप बुद्धि कहते हैं, वह सब से ज्यादा कन्फरमिस्ट हिस्सा है, सब से ज्यादा आर्थोडाक्स हिस्सा है आपके व्यक्तित्व का। वहां कुछ पकड़ में नहीं आएगा।
उससे गहरे में, जहां जीवन की धारा बहती है, जहां तरलता है, जहां चीजें जन्म लेती हैं, अराजकता है जहां, जहां केऑस है अस्तित्व का; भीतर गहरे में, जहां हृदय में, जहां सारी ऊर्जा उठती है; जहां से काम आता है, क्रोध आता है, प्रेम आता है, घृणा आती है, दया, करुणा आती है-वहां। यह गणित और भाषा जहां चलती है, वहां से नहीं; यह भूगोल और इतिहास जहां पढ़ा जाता है, वहां से नहीं; केमिस्ट्री और फिजिक्स की जानकारी जहां से होती है, वहां से नहीं। जहां से प्रेम पैदा होता है, जहां से घणा पैदा होती है, जहां जीवन के मल स्रोत बहते हैं, वहां जब कांटा डलता है समझ का, तो क्रांति की मछली पकड़ में आती है। उसके बिना नहीं आती है।
अब अगर कभी हजार में कोई एकाध ऐसा सरल आदमी होता है, तो तत्काल हो जाता है। आज तो वह हालत कम होती चली जाएगी। आज तो हमें कुछ उपाय, कुछ डिवाइस करनी पड़ेगी, जिससे तोड़ें। पहले तोड़ें, फिर भीतर प्रवेश हो सकता है। और तब, तब समझ और क्रांति दो चीजों के नाम नहीं हैं, एक ही सिक्के के दो पहलू हैं।
दूसरा सवाल पूछा है: कि लाओत्से अगर कहता है, कुछ न करो, तो पुरुषार्थ का क्या होगा? क्यातुम समझते हो, कुछ न करना कोई छोटा-मोटा पुरुषार्थ है? कुछ न करना इस जगत में सबसे बड़ा पुरुषार्थ है। न करने की ताकत इस जगत में सबसे बड़ी मालकियत है। करना तो बच्चे भी कर लेते हैं। करने में कोई बड़ा पुरुषार्थ नहीं है। करना तो बिलकुल सहज, साधारण सी घटना है। जानवर भी कर रहे हैं। न करना तो बहुत बड़ी बात है। तो यह मत सोचना कि लाओत्से जब कहता है कि न करो, इन-एक्टिविटी, तो इससे तो पुरुषार्थ खतम हो जाएगा।
समर्पण जो है, वह सबसे बड़ा संकल्प है। अब यह बहुत उलटा, खयाल में आता नहीं है न हमें। हमें लगता है कि समर्पण, किसी के चरणों में सिर रख दिया, तो हम तो मिट गए। लेकिन पता है कि किसी के चरणों में सिर रखना साधारण आदमी की हैसियत की
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