Book Title: Tao Upnishad Part 01
Author(s): Osho Rajnish
Publisher: Rebel Publishing House Puna

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Page 192
________________ Download More Osho Books in Hindi Download Hindi PDF Books For Free प्रेम का अर्थ है रूमानी आंख । वह कुछ ऐसी चीजें देख लेती है, जो कहीं भी नहीं हैं। फिर धीरे-धीरे जो नहीं है, उसके साथ जैसे-जैसे रहिएगा, वह विदा होता जाएगा; और जो है, वह प्रकट होने लगेगा। और जब वह प्रकट होगा, तब आपको लगेगा कि कोई चीटिंग हो गई, कोई धोखा हो गया। बाकी धोखा कुछ नहीं हुआ है। आपने कुछ प्रोजेक्ट किया था, आपने कुछ डाला था, जो था नहीं वस्तुओं में। हम एक अर्थ में, यह जो डालने की कला है, उससे ही जी रहे हैं। हर चीज में हम वह देखते हैं, जो वहां नहीं है। और तब हम एक ऐसी दुनिया अपने आस-पास निर्मित कर लेते हैं, जो बिलकुल सपनों की है। इसलिए रोज रोना पड़ता है, क्योंकि सपने जरा ही टकरा जाते हैं कहीं और कांच की तरह चकनाचूर हो जाते हैं। मुल्ला नसरुद्दीन घर आ रहा है बहुत से कांच के सामान लेकर। कुछ खयाल में थे, सब गिर पड़ा, चकनाचूर हो गया। रास्ते पर टुकड़े बिखर गए। मुल्ला खड़े होकर देख रहा है उनको । भीड़ लग गई। लोग भी सकते में हैं कि वह कुछ बोल भी नहीं रहा। कुछ कहता भी नहीं। सब चीजें टूट-फूट कर पड़ी हैं। फिर मुल्ला ने ऊपर नजर उठाई और उसने कहा, व्हाट इज़ दि मैटर ? क्यों यहां खड़े हो ? यू ईडियट्स, यहां किसलिए खड़े हो? हैव नॉट यू सीन एनी फूल बिफोर? मुल्ला ने कहा, क्या तुमने किसी मूरख को पहले नहीं देखा ? हम एक मूरख हैं कि हम ये सब चीजें तोड़ कर खड़े हैं; आप किसलिए खड़े हैं? क्या तुमने कोई मूरख पहले नहीं देखा? घर मुल्ला लौटा है खाली हाथ। पत्नी ने कहा कि वह सब सामान? मुल्ला ने कहा, कांच का था, जितनी दूर चला, उतना ही काफी है। घर तक आने का क्या भरोसा की बात कर रही है? जितनी दूर चला, उतना काफी है। सामान ही कांच का था । हम सब जिंदगी के आखिरी पड़ाव में ऐसा ही पाते हैं। रोज चीजें टूटती चली जाती हैं, रोज चीजें टूटती चली जाती हैं। आज एक टूटती है, कल दूसरी टूटती है, परसों तीसरी टूटती है। फिर भी हमें खयाल नहीं आता कि जो सामान हम लेकर चल रहे हैं, वह कांच का है। सपने, प्रोजेक्शंस, खयाल वे टूटते हैं रोज घर बनाते हैं ताश के पत्तों के, बिखर जाते हैं। जरा सा हवा का झोंका और कैसे अजीब हैं। हम लोग कि हवा के झोंके पर नाराज होते हैं! और परमात्मा से प्रार्थना करते हैं कि औरों के महलों पर चलाओ ये हवाएं कम से कम हमारे महल को तो बचाओ ! कितनी प्रार्थनाएं कर रहे हैं। लेकिन कोई प्रार्थना कागज के बनाए गए मकानों को नहीं बचा सकती है और कोई परमात्मा नहीं बचा सकता। बना लेते हैं कागज की और यात्रा पर निकल जाते हैं अनंत सागर की खोज में। हैरानी यह नहीं है कि आप कभी पहुंचते नहीं, हैरानी यह है कि दो-चार कदम भी आपकी नाव चल जाती है। मिरेकल है! वही तो मुल्ला ने कहा कि इतनी दूर चला, इट इज़ इनफ ! वही मैं चकित हुआ, मुल्ला ने कहा, कि इतनी दूर तक कैसे आ गया! कांच का सामान है। लाओत्से कह रहा है कि सत्य की प्रतीति उसे जो हो रही है, वह भी एक स्वप्न है। दैट टू इज़ ए ड्रीम वह भी स्वप्न में देखा गया । वह भी वह नहीं कह रहा कि सत्य है। वह कह रहा है कि जब तक मैं बचा हूं, थोड़ा सा भी मैं बचा हूं, तो मैं स्वप्न देख ही लूंगा । मेरा होना स्वप्न के देखने की क्षमता है। मैं बचा हूं, तो मैं प्रतिबिंब बना लूंगा। मैं उसे न देख पाऊंगा, जो है। क्योंकि जो है, उसे देख कर हालत वही होती है, जो पतंगे की होती है। दौड़ता है और लौ में जल जाता है और नष्ट हो जाता है। लौ ही हो जाता है। बड़े से बड़ा सत्य भी प्रतिबिंब है। इसका यह अर्थ नहीं है कि ऐसा कोई सत्य नहीं है, जो प्रतिबिंब के बाहर हो। ऐसा सत्य है। उसी की खोज में ये सारे वक्तव्य हैं। लेकिन प्रतिबिंब मिटेंगे आपके मिटने के साथ। ऐसा समझें, एक फिल्म चल रही है पर्दे पर । आप सब आकर्षित होकर पर्दे पर देखते रहते हैं। भूल ही जाते हैं कि पर्दे पर कुछ भी नहीं है; प्रोजेक्टर, वह जो पीछे है। प्रोजेक्टर तो पीछे है। उसे तो कोई देखता भी नहीं लौट कर लौट कर कभी आप धन्यवाद भी नहीं देते कि धन्यवाद प्रोजेक्टर! बहुत बढ़िया फिल्म थी! प्रोजेक्टर की कोई बात ही नहीं करता। लेकिन आपको पता होना चाहिए कि पर्दा बिलकुल खाली है; सब खेल प्रोजेक्टर का है। और प्रोजेक्टर पीछे है, उसकी तरफ पीठ किए बैठे रहते हैं। और जिस तरफ आंख किए बैठे हैं, वहां कुछ भी नहीं है। लाओत्से जैसे लोगों का जानना है कि वह जो हमारा अहंकार है, अस्मिता है, वह जो हमारा मैं है- कितना ही शुद्ध हो वह प्रोजेक्टर है। वह ड्रीम्स पैदा करता है, वह स्वप्न पैदा करता है। वह चीजों को वैसा दिखा देता है, जैसा हम देखना चाहते हैं। लेकिन यह तो बहुत दूर की बात है। मैं देखता हूं, कोई ध्यान करे। कोई दो दिन ध्यान करता है, वह आकर कहता है कि क्या खयाल हैं आपके, मुझको लाल रंग दिखाई पड़ रहा है ! यह ठीक है न? गति तो ठीक हो रही है? इनको लाल रंग दिखाई पड़ रहा है; गति ठीक हो रही है? कि मुझे एक सफेद बिंदु दिखाई पड़ रहा है प्रकाश का; उपलब्धि बड़ी है कि छोटी ? कि मुझे जरा रीढ़ में थोड़ी सी सरसराहट मालूम पड़ती है; कुंडलिनी जाग रही है कि नहीं? रोज दो घंटे एक आदमी बैठ जाता है आंख बंद करके उसमें भी कई दफे बीच-बीच में खोल कर देख लेता है-सोचता है कि सत्य बिलकुल हाथ में आ गया; क्योंकि रीढ़ में थोड़ी सी सरसराहट मालूम होती है। इस पुस्तक का श्रेय जाता है रामेन्द्र जी को जिन्होंने आर्थिक रूप से हमारी सहायता की, आप भी हमारी सहायता कर सकते हैं - देखें आखिरी पेज

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