Book Title: Tao Upnishad Part 01
Author(s): Osho Rajnish
Publisher: Rebel Publishing House Puna

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Page 145
________________ Download More Osho Books in Hindi Download Hindi PDF Books For Free अब यह जानकारी आत्मघाती है। अब जब हमें पता ही है कि ईश्वर है, तो खोजने क्यों जाएं? जो मालूम ही है, उसकी तलाश क्यों करें? जो पता ही है, उसके लिए श्रम क्यों उठाएं? इसलिए पूरा मुल्क अध्यात्म की चर्चा करते-करते गैर-आध्यात्मिक हो गया। अगर इस मुल्क को कभी धार्मिक बनाना हो, तो एकबारगी समस्त धर्मशास्त्रों से छुटकारा पा लेना पड़े। एक बार जानकारी से मुक्ति हो, तो शायद हम फिर तलाश पर निकल सकें, खोज पर निकल सकें। तो लाओत्से कहता है, जो जानते हैं, वे लोगों को ज्ञान से बचाते हैं। ज्ञान से बचाने का एक तो कारण यह है कि ज्ञान उधार होता है। लाओत्से उस ज्ञान की बात नहीं कह रहा है, जो भीतर, अंतःस्फूर्त होता है। अगर ठीक से समझें, तो दोनों में बड़े फर्क हैं। जो भीतर से जन्मता है, जो स्वयं का होता है, वह नालेज कम और नोइंग ज्यादा होता है। ज्ञान कम और जानना ज्यादा होता है। असल में, जो ज्ञान भीतर आविर्भूत होता है, वह ज्ञान की तरह संगृहीत नहीं होता, जानने की क्षमता की तरह विकसित होता है। जो ज्ञान बाहर से इकट्ठा होता है, वह संग्रह की तरह इकट्ठा होता है, भीतर इकट्ठा होता जाता है। आप अलग होते हैं, ज्ञान का ढेर अलग लगता जाता है। आप ज्ञान के ढेर के बाहर होते हैं। वह आपको छूता भी नहीं। आप अलग खड़े रहते हैं। जैसे आप अपने कमरे में खड़े हैं और आपके चारों तरफ रुपए का ढेर लगा दिया जाए। इतना ढेर लग जाए कि रुपए में आप बिलकुल डूब जाएं, सब तरफ रुपए आपको घेर लें, गले तक आप दब जाएं- आकंठ । लेकिन फिर भी आप रुपया नहीं हो गए हैं। आप अभी भी अलग हैं। और एक झटका देकर आप बाहर हो सकेंगे। और नहीं हैं बाहर, तब भी बाहर हैं। आप रुपया नहीं हो गए हैं। एक तो ज्ञान है, जो बाहर से इसी तरह इकट्ठा होता है, हमारे चारों तरफ इकट्ठा होता है। एराउंड एंड एराउंड, चारों ओर, लेकिन भीतर नहीं। जो भी बाहर से आता है, वह धूल की तरह इकट्ठा होता जाता है, वस्त्रों की तरह इकट्ठा होता जाता है। जो भीतर से जन्मता है, वह ज्ञान संग्रह की तरह इकट्ठा नहीं होता, वह आपकी चेतना की तरह विकसित होता है। इट इज़ मोर नोइंग एंड लेस नालेज । वह आपकी चेतना बन जाती है। ऐसा नहीं कि आप ज्यादा जानते हैं; आपके पास ज्यादा जानने की क्षमता है। नाक या कबीर या बुद्ध या लाओत्से ज्यादा नहीं जानते हैं। और आप में से कोई भी उनको परीक्षा में परास्त कर सकता है। उनकी जानकारी बहुत नहीं है, लेकिन जानने की क्षमता बहुत है। अगर एक ही चीज पर आप और वे दोनों जानने में लगें, तो वे इतना जान लेंगे, जितना आप न जान सकोगे। अगर एक पत्थर बीच में रख दिया जाए, तो वे उस पत्थर से परमात्मा को भी जान लेंगे। आप पत्थर को भी न जान पाओगे। हो सकता है, पत्थर के संबंध में जानकारी आपकी ज्यादा हो, लेकिन पत्थर में गहराई आपकी ज्यादा नहीं हो सकती। जानकारी सुपरफीशियल होती है, धरातल पर होती है, और जानना अंतःस्पर्शी होता है। ध्यान रहे, अगर आपके चारों तरफ ज्ञान है, तो आप चीजों से परिचित होते रहेंगे। बर्ट्रेड रसल ने दो भेद किए हैं ज्ञान के करीब-करीब ठीक ऐसे एक को वह कहता है एक्वेनटेंस, परिचय; और दूसरे को वह कहता है। नालेज । जो परिचय है वह हमारे पास इकट्ठा हो जाता है; और जो ज्ञान है वह हमारे पास इकट्ठा नहीं होता, वह हम को ही रूपांतरित कर जाता है। ज्ञान और ज्ञानी में फर्क नहीं होता; जानकारी में और जानने वाले में फासला होता है, डिस्टेंस होता है, स्पेस होती है, जगह होती है। तो लाओत्से कहता है कि जो जानते हैं, वे लोगों को जानकारी से बचाएंगे। इसीलिए बचाएंगे, ताकि कभी लोग भी उस दुनिया में प्रवेश कर सकें, जहां जानने की घटना घटती है। इसलिए समस्त ज्ञानियों ने ज्ञान पर जोर नहीं दिया, ध्यान पर जोर दिया। ध्यान से क्षमता बढ़ती है जानने की, और ज्ञान से तो केवल संग्रह बढ़ता है। यह फर्क आप खयाल में ले लें: संग्रह और क्षमता । महावीर ने तो कहा कि जिस दिन परम ज्ञान होता है, उस दिन न जानने वाला बचता है, न जाने जाने वाली वस्तु बचती है, न जानकारी बचती है; बस केवल ज्ञान ही बच रहता है, सिर्फ जानना ही बच रहता है। न पीछे कोई जानने वाला होता, न आगे कुछ जानने को शेष होता; जस्ट ए नोइंग, सिर्फ जानना मात्र रह जाता है। जैसे एक दर्पण हो, जिसमें कोई प्रतिबिंब न बनता हो, क्योंकि उसके आगे कुछ भी नहीं है; दर्पण हो, उसमें कोई रिफ्लेक्शन न बनता हो, क्योंकि आगे कोई आब्जेक्ट नहीं है, कोई वस्तु नहीं है जिसका बने। फिर भी दर्पण तो दर्पण होगा। लेकिन देन इट इज़ जस्ट ए मिरर । और भी ठीक होगा कहना, देन इट इज़ जस्ट ए मिररिंग। कुछ भी तो नहीं बन रहा है उसमें, लेकिन अभी दर्पण तो दर्पण है। महावीर कहते हैं, जब सच में ही आंतरिक ज्ञान का आविर्भाव होता है अपनी पूर्णता में, तो व्यक्ति सिर्फ जानने की एक क्षमता मात्र रह जाता है; जानकारी बिलकुल नहीं बचती । और ध्यान रहे, जानकारी जहां खत्म होती है, वहीं जानने वाला भी खत्म हो जाता है। इस पुस्तक का श्रेय जाता है रामेन्द्र जी को जिन्होंने आर्थिक रूप से हमारी सहायता की, आप भी हमारी सहायता कर सकते हैं - देखें आखिरी पेज

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