Book Title: Tao Upnishad Part 01
Author(s): Osho Rajnish
Publisher: Rebel Publishing House Puna

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Page 176
________________ Download More Osho Books in Hindi Download Hindi PDF Books For Free ठहरेगा। बीच का फासला पार कैसे करेगा? अ से ब तक जाएगा कैसे? झेनो कहता है, जा नहीं सकता। झेनो कहता है, गणित के हिसाब से कोई तीर कहीं नहीं गया। झेनो चलता है, झेनो तीर भी चलाता है। झेनो से लोग पूछते हैं कि तुम चलते भी हो, पहुंच भी जाते हो, तीर भी चलाते हो । झेनो कहता है, पता नहीं; लेकिन गणित में तो कोई तीर चल नहीं सकता। क्योंकि चलने का मतलब है, उसे एक बार तो अ पर होना पड़ेगा। जब वह अ पर होगा, तब ब पर नहीं होगा। फिर ब पर होना पड़ेगा। और जब तक वह अ पर है, ब पर कैसे जाएगा? और या फिर ऐसा मानो कि उसी समय अ पर भी रहेगा और ब पर भी रहेगा, तो सब गड़बड़ हो जाएगी। तो झेनो ने पैराडॉक्सेस लिखे हैं। और दो हजार साल लग गए, झेनो के पैराडॉक्सेस का उत्तर देने की बहुत कोशिश की गई, बहुत लोगों उत्तर दिए; लेकिन उत्तर नहीं हो पाते। क्योंकि उत्तर हो नहीं सकते। उत्तर हो नहीं सकते, क्योंकि बुद्धि तोड़ कर सोचती है और तीर तो बिना तोड़े चला जाता है। दिक्कत जो है, वह यह है, तीर पता ही नहीं रखता कि अ कहां है और ब कहां है ! बुद्धि तोड़ कर चलती है, पैर तो बिना तोड़े चले जाते हैं। पैर तोड़ते थोड़े ही हैं कि यह आधा मील, फिर यह आधा मील, फिर यह आधा मील; पैर तो बिना तोड़े चले जाते हैं। और बुद्धि तोड़ कर जाती है। पैर और बुद्धि में तालमेल नहीं रह जाता। बुद्धि का नियम है, तोड़ो। तोड़ने का परिणाम है, उलझो। अगर उलझाव से बचना है, तो पीछे लौटो, तोड़ो मत। तोड़ना नहीं है, तो बुद्धि को छोड़ो। और बुद्धि छूटी कि अभेद निर्मित हो जाता है और सब गुत्थियां गिर जाती हैं; सब ग्रंथियां गिर जाती हैं। महावीर के नामों में से एक नाम है निर्ग्रथ उसका अर्थ है, वह आदमी जिसकी सब ग्रंथियां गिर गईं, वह आदमी जिसके सब उलझाव गिर गए। ध्यान रहे, उलझाव के गिरने पर जोर है, सुलझाव के होने पर नहीं है जोर। मेरे हाथ में एक उलझी हुई गुत्थी है धागों की। सुलझाने का मतलब है, इन धागों को मैं सुलझा - सुलझा कर लपेट कर एक रेखाबद्ध कर लूं। उलझाव के गिर जाने का अर्थ है, ये धागे मेरे हाथ से गिर जाएं, मैं इस उलझाव को ही भूल जाऊं। यह बात ही खतम हो गई। मेरे हाथ खाली हो गए। जोर उलझाव के गिर जाने पर है। लाओत्से कहता है, सारे उलझावों को हटा दो। महावीर कहते हैं, निर्ग्रथ हो जाओ, सब ग्रंथियां छोड़ दो। अभी मनोविज्ञान ने कांप्लेक्स शब्द पर बहुत काम करना शुरू किया है। क्योंकि पूरब में तो ग्रंथि शब्द बहुत पुराना है। मन के जो उलझाव हैं, उनको हम ग्रंथि कहते रहे हैं। पश्चिम ने अभी पिछले पचास-साठ वर्षों में कांप्लेक्स शब्द का उपयोग करना शुरू किया है। उसका अर्थ है ग्रंथि। और मन में बड़े कांप्लेक्स हैं। और मनोविज्ञान बहुत कोशिश करता है कि इनसे सुलझाव हो जाए। लेकिन अभी पचास साल की निरंतर कोशिश से यह अनुभव में आया कि चाहे वर्षों की साइको एनालिसिस कोई करवाए, तो भी कांप्लेक्स सुलझते नहीं हैं। केवल वह आदमी उनके साथ रहने को राजी हो जाता है, बस । एक आदमी में क्रोध है। वह परेशान है कि क्रोध को कैसे हटाऊं ! अगर मनोवैज्ञानिक के पास जाएगा, तो दोतीन साल की लंबी प्रक्रिया के बाद वह इस स्थिति में आ जाएगा कि वह राजी हो जाएगा कि नहीं हटता है, रहने दो। राजी हैं, अब हटाने की भी कोशिश नहीं करते। इससे ज्यादा कहीं पहुंचते नहीं हैं वे सुलझाने की कोशिश में आप यहीं तक पहुंच सकते हैं कि उलझी हुई ग्रंथि को ही सुलझा हुआ समझ कर, दबा कर सो जाएं। वह सुलझने वाली नहीं है। उसका स्वभाव उलझा होना है। मन ग्रंथि है। माइंड इज़ दि कांप्लेक्स। ऐसा नहीं है कि कुछ और कांप्लेक्स हैं जिनको हल कर दिया, तो पीछे माइंड बचेगा। वह मन ही गांठ है। उसको सुलझाने का जो उपाय लाओत्से जैसे लोग सुझाते हैं, वह यह है कि इस मन की जो आधारशिला है, भेद - अपनापराया, अंधेरा- उजाला, मित्र-शत्रु, जीवन-मृत्यु, शरीर आत्मा, स्वर्ग-संसार ये जो भेद हैं, इनको गिरा दो । नसरुद्दीन एक कार से टकरा गया। उसको भारी चोट पहुंची है, जितनी पहुंच सकती है। दोनों पैर की हड्डियां टूट गई हैं, एक हाथ टूट गया है, गर्दन टूट गई है, कई पसलियां टूट गई हैं। सिर पर बहुत चोट हैं। सब पर पट्टियां बंधी हैं। वह अस्पताल में पड़ा है। सुलतान नगर से गुजर रहा है। खबर मिली कि गांव का सबसे बूढ़ा आदमी और बड़ा जाहिर आदमी अस्पताल में है, तो वह देखने गया है। देख कर उसकी समझ में न आया, क्या कहे। क्योंकि सिर्फ नसरुद्दीन का मुंह दिखाई पड़ता है और दो आंखें दिखाई पड़ती हैं, बाकी सब पट्टियां बंधी हैं। भारी चोट पहुंची है। आदमी बचेगा भी कि नहीं बचेगा ! सुलतान कुछ कहना चाहता है, लेकिन कहां से शुरू करे, यह ही समझ में नहीं आता। सहानुभूति भी क्या बताए, मामला ही बिलकुल गड़बड़ है। सहानुभूति बताने लायक भी नहीं है। फिर भी कुछ कहना चाहिए, तो वह कहता है कि बहुत ज्यादा चोट पहुंची; पैर टूट गया, हाथ टूट गया, सिर पर चोट पहुंची, मुंह पर चोट पहुंची, पसलियां टूट गईं, बड़ी पीड़ा होती होगी नसरुद्दीन! बहुत ज्यादा दुख, बहुत ज्यादा दर्द होता होगा ! नसरुद्दीन कहता है, नहीं, वैसे तो नहीं होता; होता है, व्हेन आई लाफ। उसने कहा कि जब मैं हंसता हूं, तब थोड़ा होता है, ऐसे नहीं होता। वह सुलतान तो समझ ही नहीं सका कि ऐसी हालत में कोई आदमी हंसेगा काहे के लिए। उसको खयाल में ही नहीं आया, कल्पना ही के बाहर था कि यह हंसेगा। वह नसरुद्दीन बोला, नहीं, ऐसे कोई तकलीफ नहीं हो रही; जरा हंसता हूं, तो थोड़ी तकलीफ होती है। सुलतान की हिम्मत न पड़ी कि अब और कुछ आगे क्या कहे। फिर भी उसने कहा, आ ही गया हूं तो अच्छा ही हुआ, एक सवाल पूछ कर चला जाऊं। क्या इस पुस्तक का श्रेय जाता है रामेन्द्र जी को जिन्होंने आर्थिक रूप से हमारी सहायता की, आप भी हमारी सहायता कर सकते हैं - देखें आखिरी पेज

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