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लेकिन इस बात की भी संभावना है कि कोई दोनों को इनकार कर दे और कोई तीसरी बात कहे। तो महावीर कहते हैं, मैं तीसरा वक्तव्य यह देता हूं कि शायद घड़ा है भी और शायद घड़ा नहीं भी है। क्योंकि घड़ा मिट्टी भी है और घड़ा घड़ा भी है; और मिट्टी मिटटी भी है और मिट्टी घड़ा नहीं भी है। तो मैं तीसरा वक्तव्य यह देता है।
और महावीर कहते थे, लेकिन और भी अगर कोई वक्तव्य देने वाला हो, तो वह यह भी कह सकता है कि जिस चीज के मामले में साफ नहीं कि यह घड़ा है, कि मिट्टी है, कि दोनों है, कि दोनों नहीं है, जिस चीज के मामले में बहुत साफ नहीं, तो कहना चाहिए, अनिर्वचनीय है। तो महावीर कहते हैं, मैं चौथा वक्तव्य यह देता हूं कि शायद जो है, वह अनिर्वचनीय है, नहीं कहा जा सकता है।
फिर और तीन उनके और जटिल हो जाते हैं। सात! और सात कुल कांबिनेशंस होते हैं। सात से ज्यादा कांबिनेशंस नहीं होते। एक चीज के संबंध में ज्यादा से ज्यादा सात वक्तव्य हो सकते हैं। इसलिए महावीर ने पूरे सात दे दिए। मतलब, आठवां तो होता ही नहीं; सात में सब पूरे हो जाते हैं। एक चीज के संबंध में, हम सोचते हैं, दो ही वक्तव्य होते हैं। वह गलत खयाल है। आपको परे तर्क का खयाल नहीं है। हम सोचते हैं, ईश्वर है और ईश्वर नहीं है, वक्तव्य पूरे हो गए। नहीं, महावीर कहते हैं: ईश्वर है शायद; शायद ईश्वर नहीं है; शायद ईश्वर है भी और नहीं भी है; और शायद ईश्वर अनिर्वचनीय है; शायद ईश्वर है और अनिर्वचनीय है; शायद ईश्वर नहीं है और अनिर्वचनीय है; और शायद ईश्वर है, नहीं भी है, और अनिर्वचनीय है। ये सात वक्तव्य हुए।
और महावीर कहते हैं कि सात पर लॉजिक पूरा हो जाता है। आठवां वक्तव्य नहीं होता, लॉजिकली आठवां वक्तव्य संभव नहीं है। जितना कहा जा सकता है, वह सात में पूरा हो जाता है।
इसलिए महावीर का जो न्याय है, वह सप्तभंगी न्याय है। सेवन-फोल्ड लॉजिक! सात उसकी पर्त हैं।
यह जो लाओत्से कह रहा है शायद, यह यह कह रहा है कि मैं आग्रह नहीं करता, मैं दावा नहीं करता, मैं कहता नहीं कि मान ही लो, मैं यह भी नहीं कहता कि जो मैंने जाना, वह सत्य होगा ही, मैं इतना ही कहता हूं कि ऐसी मेरी प्रतीति है। और मुझ साधारणजन की प्रतीति का क्या मूल्य है! इसलिए शायद लगाता हूं। क्या मूल्य मेरी प्रतीति का? इस विराट सत्य के समक्ष, इस महाशून्य के समक्ष, इस छोटे से शून्य घड़े का क्या मूल्य है? इसलिए मैं कहता हूं शायद। यह सब गलत भी हो सकता है। यह सब जो मैं कह रहा हूं, मेरी कल्पना भी हो सकती है। यह सब मैं जान रहा हूं, स्वप्न भी हो सकता है। हम तो अपने स्वप्न को भी सत्य कहने का आग्रह रखते हैं, और लाओत्से अपने सत्य को भी स्वप्न कहने का साहस रखता है। बड़ा मजा यह है कि यह साहस आता ही तब है, जब सत्य आता है। जब सत्य आता है, तभी यह साहस आता है। जब तक सत्य नहीं होता, तब तक यह साहस नहीं होता। जरा भी हमें डर होता है कि जो हम कह रहे हैं वह सत्य है या नहीं, तो हम बहुत जोर से कहते हैं। उस जोर के द्वारा हम सत्य की कमी को पूरा करते हैं। वह सब्स्टीटयूट है।
मुल्ला नसरुद्दीन एक गांव में ठहरा है, जहां की वह भाषा नहीं समझता। और लैटिन में उस गांव के पंडितों का समाज जुड़ता है और बातें करता है। मुल्ला भी रोज सुनने जाता है। लोग बड़े चिंतित हुए हैं कि वह समझता क्या खाक होगा! मगर वह नियमित सबसे पहला पहुंचने वाला और सबसे बाद में उठने वाला! आखिर लोगों की बेचैनी बढ़ गई और उन्होंने पूछा कि मुल्ला, तुम लैटिन समझते नहीं हो, एक शब्द तुम्हें आता नहीं, तुम ऐसी तल्लीनता से सुनते हो; क्या तुम समझ पाते होगे!
मुल्ला ने कहा, और तो मैं कुछ नहीं समझता, लेकिन यह मैं समझ जाता हूं कि कौन आदमी कितने जोर से चिल्ला रहा है, वह जरूर असत्य बोल रहा होगा। कौन आदमी बोलने में क्रोध में आ रहा है, मैं समझ जाता हूं कि वह असत्य बोल रहा होगा। कौन आदमी शांति से बोल रहा है, कौन आदमी बोलने में आग्रहहीन है।
तो मुल्ला ने कहा कि अगर मैं भाषा समझता होता, तो मुझे यह समझना इतना आसान न पड़ता। मैं भाषा में उलझ जाता। मैं भाषा समझता ही नहीं हूं, तो मैं चेहरा, आंखें, और सब चीजें देखता हूं, भाषा को छोड़ कर। और मुझे बड़ा आनंद आ रहा है। मुझे बड़ा आनंद आ रहा है। यह मैं बिलकुल नहीं समझ पाता, क्या कहा जा रहा है, लेकिन यह मैं समझता हूं कि कहने वाला कहां से कह रहा हैजान कर कह रहा है, बिना जाने कह रहा है।
हम जो भी कहते हैं, हमारा गेस्चर, हमारे कहने की एफेसिस, जोर, हमारा आग्रह, सब बताता है। और ध्यान रहे, जितना हम असत्य कहते हैं, उतने आग्रह से कहते हैं; जितना सत्य कहते हैं, उतना आग्रहशून्य हो जाता है। सत्य अपने आप में पर्याप्त है। मेरे आग्रह की कोई भी जरूरत नहीं है; मेरे बिना भी वह खड़ा हो सकता है।
एक यहूदी विचारक है, सादेह। सादेह से बहुत दफे कहा गया कि तुम अपना जीवन प्रकाशित करो, अपने जीवन के बाबत कुछ कहो, ताकि हमें आसानी हो समझने में कि तुम जो कहते हो, वह क्या है! तो सादेह ने कभी अपना जीवन नहीं लिखवाया, न यह बताया कि उसके जीवन में कोई घटना भी घटी है। सादेह कहता था कि जो मैं कह रहा हूं, अगर वह सत्य है, तो मेरे बिना सत्य रहेगा। मेरे जीवन को जानने की क्या जरूरत है?
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