Book Title: Tao Upnishad Part 01
Author(s): Osho Rajnish
Publisher: Rebel Publishing House Puna

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Page 177
________________ Download More Osho Books in Hindi Download Hindi PDF Books For Free नसरुद्दीन, ऐसी हालत में भी हंस पाते हो? नसरुद्दीन ने कहा, अगर ऐसी हालत में न हंस पाऊं, तो हंसना सीखा ही नहीं। यानी और हंसने का क्या मतलब हो सकता है! और हंसने का मौका क्या हो सकता है! और हंसता हूं इसलिए कि अब तक कई बार ऐसा भ्रम होता था, लेकिन पक्का पता नहीं था, सोचा बहुत बार था, अब पता चला कि नसरुद्दीन हड्डियां कितनी ही टूट जाएं, नसरुद्दीन नहीं टूटता। इधर भीतर हंस लेता हूं कि बड़ा मजा है! सब टूट गया है। जो आ रहा है, वही दया दिखला रहा है। लेकिन मुझको खुद दया नहीं आ रही है। सब टूट गया है, सब फूट गया है; अब इसमें कुछ है नहीं ज्यादा बचने वाला। हंसी आ रही है इससे। और लोग मुझसे आकर पूछते हैं, कैसे हो नसरुद्दीन? नसरुद्दीन बिलकुल ठीक है; नसरुद्दीन बिलकुल ठीक है। ये जो ग्रंथियां हैं मन की, इनके बीच में अगर आप अलग दिख जाएं, तो ग्रंथियां तत्काल गिर जाती हैं। फिर आप बिलकुल ठीक हैं। वे सारी पटियां बंधी रहेंगी, आपकी सब ग्रंथियां उलझी रहेंगी, चारों तरफ सब उपद्रव बना रहेगा, सब बाजार खड़ा रहेगा; आप अचानक बाहर हो जाते हैं। यू ट्रांसेंड इट। अतिक्रमण है। अतिक्रमण में ही सुलझाव है। गुत्थियां सुलझाई नहीं जा सकतीं, इन गुत्थियों के पार होने में सुलझाव है। घाटी में रह कर अंधेरा नहीं मिटाया जा सकता, लेकिन शिखर पर चढ़ जाता है एक आदमी, सूरज पर पहुंच जाता है; खुली रोशनी है, धप है। घाटी में अंधेरा है; है वह घाटी में, पड़ा है। लेकिन अब यह आदमी घाटी में नहीं है। हमारी सब की कोशिश यह है कि दीया जलाओ, आग जलाओ, घाटी को उजाला करो; मगर रहो घाटी में, वहां से हटो मत। जहां बीमारी है, वहीं रहो, वहीं उलझे रहो और वहीं सुलझाने की कोशिश करते रहो; बीमारी के पार न जाओ। लाओत्से की कीमिया, लाओत्से जैसे सभी लोगों का दर्शन पार का दर्शन है। अतीत हो जाओ, हट जाओ। जहां है उपद्रव, वहां से थोड़ा दूर हो जाओ। फासला करो बीच में, देखो जरा दूर होकर, तो हंसी आ जाती है। फिर कोई उलझाव बांधता नहीं है। लाओत्से जब कहता है कि गुत्थियों को हटा दो, ग्रंथियों को सुलझा दो, इसकी जगमगाहट मृदु हो जाए...। यह जो हमारे भीतर अस्मिता है, जो अहंकार है, यह अभी एक लपट की तरह है, जलाती है। इसकी जो जगमगाहट है, वह आंखों को पीड़ा देने वाली है। आभा नहीं है इसमें, आग है। लाओत्से कहता है, “इसकी जगमगाहट मृदु हो जाए।' तुम जरा सुलझाओ अपनी ग्रंथियों को, तुम जरा घिस दो अपनी नोकों को, और तुम पाओगे कि तुम्हारा अहंकार अहंकार नहीं हुआ, अस्मिता हो गया। इन दो शब्दों को थोड़ा समझना अच्छा होगा। संस्कृत के पास बड़े समृद्ध शब्द हैं। जैसे अहंकार, ईगो; लेकिन एक और शब्द है संस्कृत के पास, अस्मिता। उसके लिए अंग्रेजी में अनुवाद करना असंभव है। उसको हिंदी में भी अनुवाद करना असंभव है। अहंकार का अर्थ है ऐसा मैं, जिससे दूसरों को चोट पहुंचती है; अस्मिता का अर्थ है ऐसा मैं, जिससे किसी को चोट नहीं पहुंचती। इतना मृदु, जिसमें कोई नोक न रह गई! शब्द की ध्वनि भी चोट वाली है-अहंकार! अस्मिता। अस्मिता में एक भाव है, कोई तूफान शांत हो गया, लहरें गिर गईं। झील अब भी है। लेकिन तूफानों का, आंधियों का, लहरों का विक्षिप्त रूप नहीं है। झील अब भी है। झील में वे ही लहरें अब भी सो रही हैं, जो कल उठ गई थीं और तूफान में नाचने लगी थीं और विकराल हो गई थीं। और जिन्हें देख कर प्राण कंप जाते, और नौकाएं डगमगाती और डूब जाती। तट कंपते, घबड़ाते। वह अब नहीं है। लेकिन वही लहरें अभी भी हैं, सो गई हैं, शांत हो गई हैं। अस्मिता का अर्थ है ऐसा अहंकार, जिसमें से दंश चला गया, जिसमें ज्वाला न रही, आभा रह गई। आभा! सुबह सूरज निकलता है, उसके पहले जो प्रकाश होता है, वह आभा है। सूरज निकल आया, फिर तो ज्वाला शुरू हो जाती है। सूरज नहीं निकला अभी, क्षितिज के नीचे पड़ा है। सुबह हो गई, रात अब नहीं है, दिन अभी नहीं आया। बीच का क्षण है। वह बीच की संधि में आभा फैल गई है, जिसको हम भोर कहते हैं। अभी सूरज उपस्थित नहीं है। अहंकार जब ढल जाता है, तो मैं की वह जो आंखों को चुभने वाली ज्वाला है, वह मिट जाती है, अहंकार डूब जाता है। तब एक आभा रह जाती है भीतर-होने की। तब भी मैं होता हूं; ऐसा नहीं कि मैं नहीं होता हूं। तब भी मैं होता हूं; लेकिन उसमें मैं-पन कहीं नहीं होता। तब भी मैं होता हूं; लेकिन बस होता हूं, उसमें आई का, मैं का कोई तूफान नहीं होता। कहीं कोई शोरगुल नहीं होता, कहीं कोई घोषणा नहीं होती। कोई मुझसे पूछेगा, तो कहूंगा, मैं हूं; लेकिन कोई अगर न पूछेगा, तो मुझे पता ही नहीं चलेगा कि मैं हूं। यह मैं किसी के प्रश्न का उत्तर होगा। यह किसी ने पूछा होगा, तो यह मैं शब्द काम में आएगा। अन्यथा कोई नहीं पूछेगा, तो यह मैं कहीं नहीं बनेगा। लेकिन आपने देखा, अहंकार, कोई पूछे या न पूछे, कोई हो या न हो, होता है। आप अकेले में खड़े हैं, तो भी अहंकार होता है। कोई नहीं है, तो भी होता है। सुना है मैंने कि एक जहाज डूब गया। और उस पर एक बहुत बड़ा समृद्ध व्यापारी था, वह किसी तरह एक निर्जन द्वीप पर लग गया। वह न केवल बड़ा व्यापारी था, एक बड़ा मूर्तिकार, एक बड़ा आर्किटेक्ट, एक बड़ा स्थापत्य का जानकार भी था। अकेला क्या करेगा? तो उसने मूर्तियां बनानी शुरू कीं; उसने मकान बनाने शुरू किए। लकड़ियां काटीं, पत्थर जमाए; उसने अपने को व्यस्त कर इस पुस्तक का श्रेय जाता है रामेन्द्र जी को जिन्होंने आर्थिक रूप से हमारी सहायता की, आप भी हमारी सहायता कर सकते हैं -देखें आखिरी पेज

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