________________
Download More Osho Books in Hindi
Download Hindi PDF Books For Free
एक सुबह नसरुद्दीन की बैठक में कुछ मित्र इकट्ठे हैं। और नसरुद्दीन ने अपने एक शिष्य से कहा कि जा, यह मिट्टी का घड़ा है, कुएं से पानी भर ला। लेकिन ध्यान रख, घड़ा मिट्टी का है, टूट न जाए। जरा मेरे पास आ । उसे पास बुला कर उसने दो चांटे रसीद किए। वह युवक तो तिलमिला गया; वे बैठे लोग भी घबड़ा गए। एक बूढ़े ने कहा भी कि मुल्ला, बेकसूर को मारना, कुछ समझ में नहीं आता। अभी तो घड़ा टूटा भी नहीं, तोड़ा भी नहीं, और सजा दे दी ! नसरुद्दीन ने कहा कि मैं उन नासमझों में से नहीं हूं कि घड़ा टूट जाए, फिर चांटा मारुं । फिर फायदा क्या? फिर फायदा ही क्या है? जब घड़ा ही टूट जाएगा, तो मारने से क्या फायदा है?
नसरुद्दीन को आप जवाब न दे पाएंगे। बात तो बड़ी मतलब की कह रहा है। कि मारना है तो अभी, तो कुछ अर्थ भी है। पीछे तो कोई अर्थ भी न रह जाएगा। आदमी इतना कुशल है, कसूर के पहले भी दंड दे सकता है। नसरुद्दीन की मजाक में वही बात है। और उसके लिए भी रेशनलाइजेशन खोज सकता है; उसके लिए भी तर्क खोज सकता है। तर्क खोजने की कुशलता हम में है।
लेकिन तर्क की कुशलता से कभी भी कोई आत्म-अनुभव को उपलब्ध नहीं होता, क्योंकि तर्क की सारी व्यवस्था स्वयं को छिपाने के काम आती है। तर्क से नहीं चलेगा काम, अंतर्दृष्टि से चलेगा। और अंतर्दृष्टि का अर्थ है कि अपने को दूसरे की जगह में रखने की क्षमता होनी चाहिए। रोज ऐसा होता है, लेकिन कभी हमें यह खयाल नहीं आता। रोज हममें से हरेक को लगता है कि दूसरे ने हम पर जो क्रोध किया, वह बिलकुल अनजस्टीफाइड था, वह बिलकुल न्यायसंगत नहीं था। प्रत्येक को लगता है। ऐसा आदमी खोजना मुश्किल है - और अगर कहीं मिल जाए, तो वह बहुत अनूठा फूल है - ऐसा आदमी खोजना मुश्किल है, जिसे दिन में पच्चीसों बार ऐसा नहीं लगता कि उसके साथ अन्याय हो रहा है। उसने तो कुछ ऐसा किया ही नहीं जिस पर क्रोध हो!
हम सब की प्रतीति यह है कि हम सब अन्याय से पीड़ित हैं, विक्टिम हैं, शिकार हैं अन्याय के चौबीस घंटे। लेकिन क्या हमने कभी, जब दूसरे पर क्रोध किया है, तो ऐसा सोचा है कि वह अन्याय का शिकार तो नहीं होगा? जब हम पर क्रोध करते वक्त किसी आदमी को पता नहीं चलता कि वह हम पर अन्याय कर रहा है, तो क्या हमें यह खयाल नहीं आ सकता कि हम भी जब दूसरे पर क्रोध करते हों, हमें पता ही न चलता हो कि हम अन्याय कर रहे हैं!
यह इनसाइट है, यह अंतर्दृष्टि है। यह तर्क नहीं है, यह एक प्रतीति है। मनुष्य का स्वभाव करीब-करीब एक जैसा है। और जो मैं सोचता हूं, करीब-करीब वैसे ही सारे लोग सोचते हैं। जैसा मैं अनुभव करता हूं, करीब-करीब सारे लोग वैसा ही अनुभव करते हैं। इसलिए बहुत कठिनाई नहीं है इस बात में कि मैं अपने को दूसरे की जगह रख कर देख लूं। इसमें भी बहुत कठिनाई नहीं है दूसरे को अपनी जगह रख कर देख लूं। और जो व्यक्ति दूसरे की जगह अपने को रखने में या दूसरे को अपनी जगह रखने में सफल हो जाता है, उसको अंतर्दृष्टि मिलनी शुरू होती है, उसको इनसाइट मिलनी शुरू होती है। और तब उसे दिखाई पड़ता है कि कितनी नोकें हैं! कितनी नोकें हैं!
महावीर परम ज्ञान को उपलब्ध हो गए, या बुद्ध परम ज्ञान को उपलब्ध हो गए, लेकिन बुद्ध सुबह प्रार्थना करते हैं, तो रोज तो वे क्षमा मांगते हैं समस्त जगत से। एक दिन बुद्ध से किसी ने पूछा कि आप परम ज्ञान को उपलब्ध हो गए, आपसे अब किसी को चोट नहीं पहुंचती, पहुंच ही नहीं सकती, आप क्षमा किस बात की मांगते हैं?
बुद्ध ने कहा कि मुझे अपने अज्ञान के दिनों की याद है। कोई मुझे चोट नहीं भी पहुंचाता था, तो पहुंच जाती थी। यद्यपि मैं किसी को चोट नहीं पहुंचा रहा, लेकिन बहुतों को पहुंच रही होगी। मुझे अपने अज्ञान की अवस्था का ज्ञान है। कोई मुझे चोट नहीं पहुंचाता था, तो भी पहुंच जाती थी। तो मैं जानता हूं कि वह जो अज्ञान चारों तरफ मेरे है, वह जो अज्ञानियों का समूह है चारों तरफ, मेरे बिना पहुंचाए भी अनेकों को चोट पहुंच रही होगी। फिर मैंने पहुंचाई या नहीं पहुंचाई, इससे क्या फर्क पड़ता है? उनको तो पहुंच ही रही है। उसकी क्षमा तो मांगनी ही चाहिए।
पर जिसने पूछा था, उसने कहा, आप तो कारण नहीं हैं पहुंचाने वाले !
बुद्ध ने कहा, कारण तो नहीं, लेकिन निमित्त तो हूं। अगर मैं न रहूं, तो मुझसे तो नहीं पहुंचेगी। मेरा होना तो काफी है न, इतना तो जरूरी है, उनको चोट पहुंचे। तो मैं क्षमा मांगता रहूंगा। यह क्षमा किसी किए गए अपराध के लिए नहीं, हो गए अपराध के लिए है। और हो गए अपराध में मेरा कोई हाथ न हो, तो भी।
हमारी स्थिति ऐसी है कि लगता है कि सारी दुनिया हमें सता रही है। एक हम इनोसेंट, निर्दोष हैं; और सारी दुनिया शरारतियों से भरी हुई है। वे सब सता रहे हैं। जैसे सारा षडयंत्र आपके खिलाफ चल रहा है। आप अकेले और यह इतना बड़ा जाल संसार का आपको परेशान करने को चारों तरफ से खड़ा है।
यह हमारी दृष्टि है। इस दृष्टि में आपको अपनी नोकें कभी दिखाई न पड़ेंगी। इसमें आप सदा ही अपने को बचाते रहेंगे। और जो अपने को बचाएगा, वह अपने को नहीं जान पाएगा। और बचा तो पाएगा ही नहीं। क्योंकि जो अपने को जानता ही नहीं, वह बचाएगा कैसे?
इस पुस्तक का श्रेय जाता है रामेन्द्र जी को जिन्होंने आर्थिक रूप से हमारी सहायता की, आप भी हमारी सहायता कर सकते हैं देखें आखिरी पेज