Book Title: Tao Upnishad Part 01
Author(s): Osho Rajnish
Publisher: Rebel Publishing House Puna

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Page 154
________________ Download More Osho Books in Hindi Download Hindi PDF Books For Free सुना है मैंने कि नसरुद्दीन एक दिन कसम ले लिया कि अब मधुशाला में पैर न रखेंगे। ताकतवर आदमी था, कसम खा ली। सांझ को निकला। मधुशाला सामने पड़ी; आंख बंद कर ली। कहा कि ऐसा नहीं हो सकता, आज ही कसम ली है सुबह ही। बिलकुल नहीं हो सकता। आंख बंद कर ली, तेजी से दौड़ने लगा। पचास कदम के बाद उसने खड़े होकर कहा, शाबाश नसरुद्दीन, तू भी बड़े संकल्प का आदमी है! मधुशाला को पचास कदम पीछे छोड़ आया। नाउ कम बैक, आई विल ट्रीट यू। चलो वापस, मधुशाला में थोड़ा तुम्हें पिलाएं। क्योंकि इतना गजब का काम तूने किया नसरुद्दीन! बड़े संकल्प का आदमी है। हिम्मत देख तेरी, शाबाश, चल वापस! वापस लौट कर शराब पी रहा है। लेकिन अब वह नसरुद्दीन को शराब पिला रहा है। यह सब रेशनलाइजेशन है। अब वह यह नहीं कह रहा कि मैं शराब पी रहा हूं, कि मैंने कोई वचन तोड़ा; वचन तो पूरा किया, पचास कदम आगे तक चला गया। लेकिन जिसने इतना वचन पूरा किया, उसकी कुछ सेवा-खातिर भी तो करनी चाहिए। ज्ञान तो अक्रिय है। कोई आचरण की लहर भी उठानी नहीं पड़ती। जैसे जल बिलकुल शांत हो, कोई लहर भी न उठती हो, नदी बहती भी न हो। सब शून्य हो, ऐसी अवस्था है ज्ञान की। लाओत्से कहता है, जब अक्रियता की ऐसी अवस्था उपलब्ध हो जाए, तो जो सुव्यवस्था, तब जो आर्डर, तब जो अनुशासन निर्मित होता है, वह सार्वभौम है, वह यूनिवर्सल है। उसका फिर अपवाद नहीं होता। तीन बातें हैं। एक तो ज्ञान अक्रियता की अवस्था है। करने का उतना सवाल नहीं, जितना जानने का है। डूइंग की उतनी बात नहीं, जितनी बीइंग की है। क्या करूं, ऐसा नहीं; क्या हो जाऊं! यह सवाल नहीं है कि मैं क्या करूं जिससे ज्ञान मिल जाए। यह सवाल है कि मैं कैसा हो जाऊं कि ज्ञान प्रकट हो जाए; मैं किस अवस्था में खड़ा हो जाऊं, जहां से दृष्टि सरल, सीधी और साफ और निर्मल हो। क्या करूं का सवाल नहीं है कि आचरण को बदलूं, चोरी छोडूं, बेईमानी छोडूं। नहीं, यह सवाल नहीं है छोड़ने-पकड़ने का। मैं किस भांति देखू जीवन को! वह दृष्टि। जानकारी की फिक्र न करूं, जानकारी से बचूं। अज्ञान को स्वीकार करूं। जीवन को अनुभव करूं। इच्छाओं में कल भटकू न। आज, अभी, यहीं जाग कर जीऊं। तो वह अक्रिय अवस्था निर्मित होने लगती है, जहां व्यक्ति एक शांत झील की तरह हो जाता है। उस शांत झील के क्षण में जीवन से सब अव्यवस्था अपने आप गिर जाती है। उसे व्यवस्थित नहीं करना होता, वह गिर जाती है। वह जो-जो गलत था, छट जाता है। उसे छोड़ने के लिए प्रयास नहीं करना पड़ता। वह जो जीवन में लगता था अशुभ है, वह अचानक पाया जाता है कि नहीं है। जैसे किसी ने अंधेरे में दीया जला दिया हो, और अंधेरा नहीं है। उस अंधेरे को निकालना नहीं पड़ता, धकाना नहीं पड़ता, हटाना नहीं पड़ता। बस दीया जल गया, और वह अंधेरा नहीं है। यह जो सुव्यवस्था है, यह और है। एक व्यवस्था है जो आयोजित है, कल्टीवेटेड है। एक बंदर को भी हम डंडे के जोर से बिठा दे सकते हैं बिलकुल कि वह मालूम पड़े कि बुद्ध की प्रतिमा बना बैठा है। बंदर को भी हाथ वगैरह लगा कर पद्मासन लगा कर बिठा दिया जा सकता है। और डंडा अगर सामने हो, और वह धीरे-धीरे आंख खोल कर देखता रहे कि डंडा है, तो वह बैठा रहेगा। मगर वह बुद्ध नहीं हो गया है। और अनेक आदमी बंदरों की तरह ही पद्मासन लगा कर बैठे रहते हैं, भीतर कहीं कुछ नहीं होता। कोई डंडे का डर-कोई नर्क, कोई पाप, मौत, दुख, चिंता, बीमारी, सब चारों तरफ घेरे हैं, सारा डर-तो उन्हें...। नसरुद्दीन से कोई पूछ रहा है कि रात प्रार्थना करके तो सोते हो? नसरुद्दीन ने कहा, नियमित, कभी चूक नहीं करता। उस आदमी ने पूछा, सुबह भी प्रार्थना करते हो? नसरुद्दीन ने कहा कि नहीं, क्यों? सुबह प्रार्थना की क्या जरूरत है? अंधेरे में मुझे डर लगता है, सुबह तो कोई जरूरत नहीं है। सुबह क्या जरूरत? अंधेरे में मुझे डर लगता है, आई एम स्केयर्ड ऑफ डार्कनेस। रात तो प्रार्थना नियमित करता हूं। सुबह क्या जरूरत है? सुबह हम किसी से डरते ही नहीं। भय लगता है, प्रार्थना जन्म ले लेती है। डंडा रखा है सामने, पद्मासन लग जाता है। आंखें बंद हो जाती हैं, माला चलने लगती है, सरकने लगती है। पूजा-पाठ शुरू हो जाते हैं। सब भय से। नसरुद्दीन को एक दफा तैमूरलंग ने बुलाया। तैमूर तो खतरनाक आदमी था। सुना उसने कि नसरुद्दीन की बड़ी प्रसिद्धि है, बड़ा ज्ञानी है। और अजीब ही तरह का ज्ञानी था। और ज्ञानी जब भी होते हैं, थोड़े अजीब तरह के ही होते हैं। क्योंकि ज्ञानी का कोई पैटर्न नहीं होता, कोई ढांचा नहीं होता। तैमूरलंग ने बुलाया और कहा कि मैंने सुना है नसरुद्दीन कि तुम बड़े ज्ञानी हो! नसरुद्दीन ने सोचा कि यह तैमूरलंग, वह नंगी तलवार लिए बैठा है। नसरुद्दीन ने कहा कि अगर हां कहें, तो तुम क्या करोगे? उसने कहा, पहले पक्का तो पता चल जाए। अगर न कहें, तो तुम क्या करोगे? इस पुस्तक का श्रेय जाता है रामेन्द्र जी को जिन्होंने आर्थिक रूप से हमारी सहायता की, आप भी हमारी सहायता कर सकते हैं -देखें आखिरी पेज

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