Book Title: Tao Upnishad Part 01
Author(s): Osho Rajnish
Publisher: Rebel Publishing House Puna

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Page 164
________________ Download More Osho Books in Hindi Download Hindi PDF Books For Free इसलिए महावीर के पहले तक अनंत शब्द का सीधा उपयोग चलता था। उपनिषद अनंत का उपयोग करते हैं। लेकिन अनंत वन डायमेंशनल है। और महावीर को लगा कि अनंत कहने से नाप हो जाती है, जैसे कि पता चल गया, जैसे कि जान लिया गया। जो आदमी कहता है अनंत, जैसे उसे पता हो गया, उसे मालूम है। तो महावीर कहते हैं, अनंतानंत । इतना अनंत है कि अनंत कहने से भी चुकता नहीं। हमें उसके ऊपर और अनंत स्क्वायर, अनंतअनंत । इतना अनंत है कि अनंत कहने से नहीं चुकता, तो इनफिनिट स्क्वायर । तब मल्टी डायमेंशनल हो गया, बहुआयामी हो गया । और यह बहुआयामी जब भी कोई शब्द होता है, तो बड़ा जीवंत हो जाता है; और जब एक आयामी होता है, तो मुर्दा हो जाता है। लाओत्से कह सकता था, अथाह; लेकिन वह कहता है, कितना अथाह ! वह अनंत अनंत जैसे शब्द का प्रयोग कर रहा है। वह कहता है, “कितना गंभीर !' शून्य और गंभीर! शून्य तो बिलकुल खाली होगा; उसमें कैसी गंभीरता? शून्य तो बिलकुल खाली होगा; उसमें कैसी गंभीरता ? नदी में बहुत जल है, तो हम कहते हैं, कैसा गंभीर प्रवाह! नदी में दो तरह के प्रवाह होते हैं। एक छिछला प्रवाह होता है; छोटी-मोटी नदियों में होता है। कंकड़-पत्थर दिखाई पड़ते रहते हैं, पर नदी शोरगुल बहुत करती है। बित्ता भर पानी होता है, लेकिन शोरगुल बहुत होता है। उसको कहते हैं छिछला प्रवाह; गंभीर नहीं। नदी शोरगुल बहुत करती है, बातचीत बहुत करती है। फिर एक नदी है कि इतना गहरा है जल कि नीचे अगर चट्टानें भी पड़ी हों, तो उनसे भी नदी की छाती पर कोई उथल-पुथल पैदा नहीं होती। नदी बहती भी है, तो पता नहीं चलता तट पर खड़े होकर कि बह रही है। बहना भी इतना सायलेंट है। तब कहते हैं, नदी की धारा बड़ी गंभीर; आवाज भी नहीं है जरा । लाओत्से कहता है, कितना गंभीर! वहां तो कोई जल की धारा ही नहीं है; सब शून्य है। पर वही कारण है। लाओत्से कहेगा, कितने ही धीमे बहती हो नदी, तुम्हारे कान पकड़ पाते हों कि न पकड़ पाते हों, जहां प्रवाह होगा वहां शोर तो होगा ही। कम होगा, सूक्ष्म होगा। न सुनाई पड़े, ऐसा होगा। लेकिन जहां प्रवाह है, वहां घर्षण है। और जहां घर्षण है, वहां शोर है। तो लाओत्से कहता है, सिर्फ शून्य ही गंभीर हो सकता है, क्योंकि वहां कोई शोर नहीं होगा। वहां कोई प्रवाह ही नहीं है। वहां कोई घर्षण नहीं है। कहीं जाना नहीं है, कहीं आना नहीं है। सब चीजें अपने में थिर हैं। तो कहता है, कितना गंभीर! कितना गहरा ! लेकिन कितना जोड़ता है और जोड़ने का कारण है कि कोई भी शब्द उथला न हो जाए; और कोई भी शब्द ऐसी खबर न दे कि बात पूरी हो गई। इस शब्द पर बात पूरी हो गई, ऐसी खबर न दे। सब शब्द आगे की यात्रा को खोलते हों; कोई शब्द क्लोजिंग न हो, सब शब्द ओपनिंग हों। लाओत्से जैसे लोगों के सारे शब्द ओपन होते हैं। उनके हर शब्द से और कहीं द्वार खुल जाता है; आगे के लिए खुलाव मिलता है। पंडित जब बोलता है, उसके सब शब्द क्लोज्ड होते हैं; उसका कोई शब्द आगे के लिए इशारा नहीं देता। उसका शब्द चारों तरफ सीमा खींच देता है, और कहता है, यह रहा सत्य! जानकारी, तथाकथित ज्ञान कहता है, यह रहा सत्य! वास्तविक ज्ञान इशारे करता है। और ऐसे इशारे करता है जो फिक्स्ड नहीं हैं, गतिमान हैं। इशारे भी दो तरह के हो सकते हैं। एक इशारा जो कि थिर होता है, फिक्स्ड होता है। अगर कोई चांद को बताए फिक्स्ड इशारे से, तो थोड़ी देर में चांद तो हट चुका होगा, इशारा वहीं रह जाएगा। अगर किसी को सच में ही चांद को बताए रखना है, तो अंगुली को बदलते जाना पड़ेगा, इशारे को जीवंत होना पड़ेगा, और चांद के साथ उठना पड़ेगा। लाओत्से जैसे लोग सत्य को कोई मृत इकाई नहीं मानते, कोई डेड यूनिट नहीं मानते। डायनैमिक, लिविंग फोर्स मानते हैं। एक जीवंत प्रवाह है। तो उनके सब इशारे जीवंत हैं। उनका हाथ उठता ही चला जाता है। कितना ! इस कितने में कहीं सीमा नहीं बनती; यह कितना सब इतनों के पार चला जाता है और एक डेप्थ और एक इशारा जो सदा ट्रांसेंड करता है शब्द को महावीर जब कहते हैं अनंत अनंत, तब भी उस शब्द में इतना ट्रांसेंडेंस नहीं है, जितना लाओत्से कहता है, कितना ! ट्रांसेंडेंस और भी ज्यादा है, अतिक्रमण और भी ज्यादा है। क्योंकि महावीर अनंत शब्द को फिर से दोहरा देते हैं: अनंत अनंत ! लेकिन शब्द फिर फिक्स्ड सा हो जाता है। शब्द की ध्वनि भी फिक्स्ड हो जाती है; एक सीमा बन जाती है। ऐसा लगता है कि शब्द की सीमा है, परिभाषा है; समझ पाएंगे। लेकिन जब कोई कहता है, कितना अथाह ! तो वह कितना जो है, उसकी कोई सीमा नहीं बनती। लाओत्से कहता है, “कितना गंभीर, कितना अथाह, मानो यह सभी पदार्थों का उदगम हो । ' वह भी कहता है मानो एज इफ सत्य को जिन्हें बोलना है, उन्हें एक-एक पांव सम्हाल कर रखना होता है। वह यह नहीं कहता कि सभी पदार्थों की जननी है। इस पुस्तक का श्रेय जाता है रामेन्द्र जी को जिन्होंने आर्थिक रूप से हमारी सहायता की, आप भी हमारी सहायता कर सकते हैं देखें आखिरी पेज

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