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इसलिए लाओत्से के जोर का दूसरा हिस्सा भी खयाल में ले लें कि जानकारी जानने वाले को मजबूत करती है और ज्ञान जानने वाले को मिटा डालता है। ये फर्क हैं। आप जितना ज्यादा जानने लगेंगे, उतना आपका मैं सघन, क्रिस्टलाइज्ड हो जाएगा। आपकी चलने में अकड़ बदल जाएगी; आपके बोलने का ढंग बदल जाएगा। आपके भीतर कोई एक बिंदु निरंतर, मैं जानता हूं, खड़ा रहेगा। जानकारी जितनी बढ़ती जाएगी, उतना ही यह मैं भी मजबूत होता चला जाएगा।
इससे उलटी घटना घटती है, जब ज्ञान विकसित होता है, आविर्भाव होता है भीतर से, जानने की क्षमता का जन्म होता है, तो बड़े मजे की बात है, वह जो मैं है, एकदम शून्य होते-होते विलीन हो जाता है। जिस दिन पूरी तरह मैं विलीन होता है, उसी दिन वह जिसे महावीर केवल ज्ञान, अकेला ज्ञान कह रहे हैं, वह फलित होता है।
पंडित और ज्ञानी में यही फर्क है।
लाओत्से के पास कनफ्यूशियस गया था। और कनफ्यूशियस ने लाओत्से से कहा था, मुझे कुछ उपदेश दें, जिससे कि मैं अपने जीवन का निर्धारण कर सकूं। लाओत्से ने कहा कि जो दूसरे के ज्ञान से अपने जीवन का निर्धारण करता है, वह भटक जाता है। मैं तुम्हें भटकाने वाला नहीं बनूंगा।
बड़ी दूर की यात्रा करके कनफ्यूशियस आया था। और कनफ्यूशियस बुद्धिमान से बुद्धिमान लोगों में से एक था; बहुत जानते हैं जो लोग, उनमें से एक था। कनफ्यूशियस ने कहा, मैं बहुत दूर से आया हूं, कुछ तो ज्ञान दें।
लाओत्से ने कहा, हम ज्ञान को छीनने का काम करते हैं; देने का अपराध हम नहीं करते।
यह हमें कठिन मालूम पड़ेगा। लेकिन सच ही आध्यात्मिक जीवन में गुरु ज्ञान को छीनने का काम करता है। वह आपकी सब जानकारी झड़ा डालता है। पहले वह आपको अज्ञानी बनाता है। ताकि आप ज्ञान की तरफ जा सकें। पहले वह आपकी जानकारी गिरा डालता है और आपको वहां खड़ा कर देता है जो आपका निपट अज्ञान है।
सच में ही क्या हम जानते हैं? अगर ईमानदारी से हम पूछें, जानते हैं ईश्वर को? लेकिन कहे चले जाते हैं। न केवल कहे चले जाते हैं, लड़ सकते हैं, विवाद कर सकते हैं। है या नहीं, संघर्ष कर सकते हैं। जानते हैं हम आत्मा को? लेकिन सुबह-शाम उसकी बात किए जाते हैं। आम आदमी नहीं, राजनीतिज्ञ कहता है कि उसकी आत्मा बोल रही है। अंतरात्मा की आवाज आ रही है राजनीतिज्ञ को। कोरे शब्द! आपको छाती के भीतर किसी आत्मा का कभी भी कोई पता चलता है? कोई स्पर्श कभी हुआ है उसका जिसे आत्मा कहते हैं? कोई स्पर्श नहीं हुआ, कोई संपर्क नहीं हुआ, एक किरण भी उसकी नहीं मिली है। पर कहे चले जाते हैं।
तो गुरु पहले तो यह सारी जानकारी को झड़ा डालेगा, काट डालेगा एक-एक जगह से, कि पहले तो वहां खड़ा कर दूं जहां तुम हो । क्योंकि यात्रा वहां से हो सकती है जहां आप हैं, वहां से नहीं जहां आप समझते हैं कि आप हैं। अगर मुझे किसी यात्रा पर निकलना है और मैं इस कमरे में बैठा हूं, तो इसी कमरे से मुझे चलना पड़ेगा। लेकिन मैं सोचता हूं कि मैं आकाश में बैठा हुआ हूं। तो मैं सोचता भला रहूं, लेकिन कोई भी यात्रा उस आकाश से शुरू नहीं हो सकती। मैं जहां हूं, वहां से यात्रा का पहला कदम उठाना पड़ता है। मैं सोचता हूं जहां हूं, वहां से कोई यात्रा नहीं होती। और अगर मैं जिद्द में हूं कि मैं वहीं से यात्रा करूंगा जहां कि मैं हूं नहीं, सोचता हूं कि हूं, तो मैं कभी यात्रा पर नहीं जाने वाला हूं।
तो पहले तो गुरु ज्ञान को छीन लेता है; अज्ञानी बना देता है। बड़ी घटना है ! आदमी इस जगह आ जाए कि सचाई और ईमानदारी से अपने से कह सके कि मैं अज्ञानी हूं, मैं नहीं जानता हूं; मुझे कुछ भी पता नहीं है। अगर कोई व्यक्ति पूरी सचाई से अपने समक्ष इस सत्य को उदघाटित कर ले, तो वह ज्ञान के मंदिर की पहली सीढ़ी पर खड़ा हो जाता है।
इसलिए लाओत्से कहता है, ज्ञानी, जो जानते हैं, वे लोगों को जानकारी नहीं देते, उनसे जानकारी छीन लेते हैं।
इसलिए आपको असली गुरु प्रीतिकर नहीं लगेगा। आप तो गुरु के पास भी कुछ लेने को जाते हैं। और असली गुरु तो, जो भी है आपके पास, उसको भी छीन लेगा। आप तो जाते हैं सत्संग में कि कुछ शब्द सुन लेंगे और आप उन शब्दों के संबंध में गपशप कर सकेंगे; कुछ जानकारी ले आएंगे और किसी और के सामने गुरु बनने का आनंद ले सकेंगे; किसी के सामने अकड़ कर खड़े हो जाएंगे और बता सकेंगे कि जानते हैं कुछ।
इसलिए असली गुरु बहुत अप्रीतिकर लगता है। वह आपको सब जगह से काटता है। वह जो-जो आप जानते हैं वहां-वहां से आपकी जड़ें हिलाता है। इसलिए असली गुरु के पास जाने में बड़ी घबड़ाहट होती है। क्योंकि वह आपको नग्न करेगा, वह आपके एक-एक वस्त्र को निकाल कर अलग फेंक देगा, वह आपके सब आवरण अलग कर देगा। वह आपको वहीं खड़ा कर देगा, जहां आप हैं।
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