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जो भी साधोगे, वह परिधि पर होगा। कोई साधना केंद्र पर नहीं हो सकती। साधेगा जो आदमी, वह परिधि पर साधेगा। तुम जो रंगरोगन करोगे, वह शरीर पर होगा। बहुत से बहुत जो तुम मेहनत उठाओगे, वह मन पर होगी। लेकिन स्वभाव शरीर और मन दोनों के पार है। उस स्वभाव को जानने के लिए तुम्हें कुछ भी करने की जरूरत नहीं है।
लेकिन ध्यान रहे, कुछ भी न करना बहुत बड़ा करना है। कुछ भी न करना छोटी बात नहीं है। इसलिए जब हम सुनते हैं, कुछ भी न करना, तो हमारे मन में होता है कि हम तो कुछ कर ही नहीं रहे हैं, तो बिलकुल ठीक है। तो लाओत्से यही कह रहा है, जैसे हम हैं, कुछ भी नहीं कर रहे हैं।
लाओत्से आपके लिए नहीं कह रहा है। आप तो बहुत कुछ कर रहे हैं। आप अगर परमात्मा को नहीं साध रहे हैं, तो आप संसार को साध रहे हैं। साधना आपकी जारी है। अगर आप परमात्मा को खोजने नहीं जा रहे हैं, तो खोने जा रहे हैं, लेकिन पूरी ताकत लगा रहे
तो आप यह मत सोचना कि आप कुछ नहीं कर रहे हैं, यही लाओत्से कह रहा है। आपका कुछ न करना कुछ न करना नहीं है। आपका कुछ न करना संसार की दिशा में सब कुछ करना है, सिर्फ परमात्मा की दिशा में कुछ न करना है।
तो एक आप हैं। आपके भी खिलाफ है लाओत्से। वह कह रहा है कि नहीं। एक आप में से कोई संसारी कभी-कभी छोड़ कर संसार, परमात्मा को साधने लग जाता है। लेकिन उसकी मेथोडोलाजी वही होती है, उसकी विधि वही होती है। जिस ढंग से वह धन कमाता था, वैसे ही वह धर्म कमाता है। और जिस ढंग से वह शरीर पर मेहनत और तनाव डाल कर इस जगत में कुछ पाना चाहता था, वैसे ही वह उस जगत में पाने की कोशिश में लग जाता है। लाओत्से कहता है, वह भी गलत है और आप भी गलत हो। क्योंकि जिसे पाना है, अगर वह भविष्य में मिलने वाली चीज हो, तब तो कुछ करना पड़ेगा। लेकिन वह मिली ही हुई है। उसको सिर्फ अनकवर करना है, डिस्कवर करना है, उसे उघाड़ना है। और सब साधना उसे ढांकेगी, उघाड़ेगी नहीं। सब साधना उसे ढांकेगी, उघाड़ेगी नहीं।
तो आप पूछ सकते हैं कि फिर जो साधना के पंथ हैं, वे क्या करते हैं? क्या वे गलत हैं?
लाओत्से के हिसाब से बिलकुल गलत हैं। लाओत्से के हिसाब से बिलकुल गलत हैं। क्योंकि लाओत्से कहता है, कुछ मत साधो, सब छोड़ दो, और तुम जान लोगे। लेकिन आपके हिसाब से वे पंथ बड़े सही हैं। क्योंकि आप सिर्फ करने की भाषा ही समझ सकते हैं। न करने की भाषा का मतलब ही आप नहीं समझ सकते।
लाओत्से जो कह रहा है, कभी करोड़ में एक आदमी ठीक से समझ पाता है-न करना। और जो न करना समझ लेता है, वह उसी क्षण मुक्त हो गया। उसके लिए दूसरे क्षण भी रुकने की जरूरत नहीं। लेकिन बाकी लोग नहीं समझ पाते हैं। बाकी लोग नहीं समझ पाते, उनके लिए क्या करना है? या तो लाओत्से अपनी बात कहे चला जाए, बाकी लोग जो करते हैं, वह करते चले जाएं।
नहीं, बाकी जो लोग नहीं समझ पाते हैं, करना ही समझ पाते हैं, उनसे कुछ करवाना पड़ता है। और उनसे इतना करवाना पड़ता है कि वे कर-करके थक जाएं और छोड़ दें। लेकिन घटना तभी घटती है, जब वे छोड़ते हैं। ध्यान रखें, घटना लाओत्से के पहले घटने वाली नहीं है। उनको कर-करके थकाना होता है। उनसे इतना करवाना होता है कि वे इतने तनाव में आ जाएं कि और तनाव का उपाय न रह जाए और तनाव छूट जाए।
तनाव के नियम हैं। या तो आप तनाव को छोड़ दें इसी वक्त-समझपूर्वक। एक तो रास्ता है, समझपूर्वक तनाव का छोड़ देना। मेरी यह मुट्ठी बंधी है। एक रास्ता तो यह है कि आपने मुझसे कहा कि बंधा होना मुट्ठी का स्वभाव नहीं है, इसलिए तुम थक जाओगे। आपने मुझसे कहा, बंधा होना मुट्ठी का स्वभाव नहीं है, इसलिए तुम नाहक थक जाओगे। क्योंकि बांधने में तुम्हें शक्ति लगानी पड़ रही है और व्यर्थ तुम कष्ट पा रहे हो। तो मैं आपसे पूछं कि मुट्ठी को कैसे खोलूं? क्या उपाय करूं? क्या साधना करूं कि मुट्ठी खोलूं? तो आप कहेंगे, फिर समझे नहीं। क्योंकि साधना करनी पड़ेगी मुट्ठी खोलने के लिए! मुट्ठी बांधने के लिए श्रम करना पड़ रहा है। समझ आ गई, तो मुट्ठी खुल जानी चाहिए। पूछना ही नहीं चाहिए।
लेकिन आप पूछते हैं, क्या करें? क्या दूसरी मुट्ठी बांधे? कि सिर के बल खड़े हों? क्या करें?
आप कहते हैं, समझ में आ गया। यद्यपि आपकी समझ में नहीं आया है। अगर समझ में आ गया, तो मुट्ठी खुल जानी चाहिए। वही सबूत होगा कि समझ में आ गया। आपको कहना नहीं पड़ेगा कि समझ में आ गया। क्योंकि बांधने के लिए मेहनत करनी पड़ती है, खोलने के लिए कुछ भी नहीं करना पड़ता। सिर्फ बांधना जो हम कर रहे थे, वह भर न करें, मुट्ठी खुल जाती है।
खुली मुट्ठी के लिए आपको कुछ नहीं करना पड़ता, यह आपने कभी खयाल किया? खुली मुट्ठी स्वभाव है। इसलिए खुली मुट्ठी पर कोई श्रम नहीं होता, भार नहीं पड़ता, तकलीफ नहीं होती। आपको कुछ नहीं करना पड़ता, मुट्ठी खुली रहती है। बांधने में कुछ करना पड़ता है।
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