Book Title: Tao Upnishad Part 01
Author(s): Osho Rajnish
Publisher: Rebel Publishing House Puna

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Page 130
________________ Download More Osho Books in Hindi Download Hindi PDF Books For Free स्पृहा हम जगाते हैं और स्पृहा जगाई जा सकती है न्यून के लिए । इस संबंध में एक बात समझ लेनी जरूरी है कि जैसा मैंने कहा कि लाओत्से से पहले सूत्र में नीतिशास्त्री और साधु-महात्मा, न्यायविद विरोध करेंगे। ऐसा इस दूसरे सूत्र में इकोनॉमिस्ट, अर्थशास्त्री विरोध करेंगे। अगर ठीक से हम समझें, तो अर्थशास्त्री कहते हैं कि इकोनॉमिक्स का अर्थ ही यह है कि वह न्यून के लिए संघर्ष है; वह जो कम है, उसके लिए संघर्ष है। असल में, वह उसी चीज की इकोनॉमिक वैल्यू है, जो न्यून है। इसलिए हवा का कोई मूल्य नहीं है। गांव में पानी का कोई मूल्य नहीं है। थोड़े ही जमाने पहले जमीन का कोई मूल्य नहीं था। थोड़े ही जमाने बाद हवा का मूल्य हो जाएगा। क्योंकि हवा कम पड़ती जाती है। उसमें आक्सीजन क्षीण होती चली जाती है। लोग बढ़ते चले जाते हैं। इतनी भीड़ बढ़ती जाती है कि कल पचास साल बाद जिनकी क्षमता होगी, वे ही अपनी-अपनी आक्सीजन का बक्सा अपने साथ लटका कर घूमेंगे। जो गरीब होंगे, वे देखेंगे कि ठीक है, जो मिल जाए हवा में इधर-उधर, उससे काम चलाएंगे। भीख मांगने की हालत हो जाएगी। कोई आश्चर्य नहीं है कि पचास साल बाद कोई आदमी आपके दरवाजे पर आकर कहे कि थोड़ी आक्सीजन मिल जाए ! बस जरा सी अपनी आक्सीजन के डिब्बे पर मुझे भी मुंह रख लेने दें, बहुत तड़प रहा हूं। क्योंकि न्यूयार्क की हवा में इतनी आक्सीजन कम है अभी भी कि वैज्ञानिक कहते हैं, हम चकित हैं कि आदमी जिंदा कैसे है! और विषाक्त गैसेस की इतनी मात्रा हो गई है कि डर है कि यह मात्रा में ज्यादा देर जीया नहीं जा सकेगा। तो कल हवा की कीमत हो जाएगी। पानी की कभी कीमत न थी। अभी एक पचास साल पहले गांव में दूध की कोई कीमत न थी । न्यून होती है चीज और कीमत हो जाती है। सारा अर्थशास्त्र न्यून पर खड़ा होता है। अगर ठीक समझें, तो वैल्यू का मतलब ही होता है, वह जो न्यून है, उसकी कीमत। कीमत का मतलब, कितनी न्यून है। जितनी न्यून हो जाएगी, उतनी कीमत बढ़ जाएगी। जितनी ज्यादा हो जाएगी, उतनी कीमत कम हो जाएगी। इसलिए उन्नीस सौ तीस में अमरीका को अपनी लाखों गठरियां कपड़े की समुद्र में फेंक देनी पड़ीं। क्योंकि कपड़ा हो गया ज्यादा और बाजार में कीमत इतनी गिर जाएगी कि मर जाएंगे। तो उसको सागर में फेंक दिया, ताकि बाजार में कपड़ा अधिक न हो जाए। अधिक हो जाए, तो कीमत खतम हो जाए। बाजार में कीमत बनी रहे, तो कपड़े को सागर में डुबा दिया। और जमीन पर लाखों लोग नंगे हैं। लेकिन इकोनॉमिक्स की धुरी नहीं चलती, वह टूट जाए फौरन । लाओत्से का बस चले, तो दुनिया में कोई इकोनॉमिक्स न हो। लाओत्से का बस चले तो दुनिया में अर्थशास्त्र नहीं होगा। क्योंकि लाओत्से यह कहता है, न्यून को कीमत ही क्यों देते हो? जो ज्यादा है, उस पर ध्यान दो। जो पर्याप्त है, उस पर ध्यान दो। जो सबको मिल सकती है, उसको आदरणीय बनाओ जो कम को मिल सकती है, उसकी बात छोड़ दो। कोई कोहनूर लटकाए फिरे, तो लटकाए फिरने दो। खबर कर दो कि यह आदमी पागल हो गया है। यह देखते हो, कितना बड़ा पत्थर लगाए हुए है गले में स्कूल स्कूल, घरघर में बच्चों को समझा दो कि यह आदमी पत्थर लटकाता है, इसका दिमाग खराब है। तो हम इस जगत को अनुद्विग्न, मनुष्य के चित्त को अशांति के पार एक शांति के अलग जगत में ले जा सकते हैं। लाओत्से ने कहा है कि मैंने सुना है कि मेरे बाप-दादों के जमाने में नदी के उस पार हमें रात में कुत्तों की आवाज सुनाई पड़ती थी। उस तरफ कोई गांव है। कभी-कभी खुला आकाश होता, तो उस गांव के मकानों में जलते हुए चूल्हों का धुआं भी दिखाई पड़ता था। लेकिन सुना है मैंने कि कोई कभी नदी के पार जाकर उस गांव को देखने नहीं गया कि वहां रहता कौन है। लोग इतने शांत थे कि व्यर्थ की अशांतियां नहीं लेते थे। अब इससे क्या मतलब है, कोई रहता होगा ! कुत्तों की आवाज सुनाई पड़ती थी रात, तो मालूम होता था, कोई रहता होगा। कभी-कभी धुआं दिखाई पड़ता था मकानों का उठता आकाश में, तो लगता था, कोई रहता होगा। लेकिन कोई नदी पार करके जाने के लिए फिक्र में नहीं पड़ा कि जाकर देख आए, कौन रहता है। और हमें चैन न मिलेगी, जब तक हम सारे ग्रह उपग्रह पर न पहुंच जाएं कि कौन रहता है; कि कोई नहीं रहता, तो भी पता लगा लें कि कोई रहता तो नहीं है ! गहरे में यह सारी की सारी अनुद्विग्न या उद्विग्न स्थितियों पर निर्भर बात है। उद्विग्न जो है, वह भागा हुआ रहेगा, कोई भी बहा से भागा हुआ रहेगा। जो अनुद्विग्न है, वह किसी भी बहाने से बैठा हुआ रहेगा। किसी भी बहाने से शांत रहेगा, थिर रहेगा। उसमें व्यर्थ के बवाल नहीं उठेंगे, और व्यर्थ के भंवर नहीं उठेंगे, और व्यर्थ के तूफानों को वह आकर्षित नहीं करेगा, और व्यर्थ की जिज्ञासाओं में नहीं जाएगा। सारा शिक्षा का आधार लाओत्से के हिसाब से और होना चाहिए: स्पृहा - मुक्त! नॉन- एंबीशस ! महत्वाकांक्षा नहीं। किसी से गणित बन जाती है, तो ठीक है। और नहीं बन जाती है, तो भी ठीक है। उतना ही ठीक है। जिससे गणित नहीं बन जाती, उससे क्या बन सकता है, इसकी फिक्र करो, बजाय यह फिक्र करने के कि उससे गणित बने ही उसको नष्ट मत करो। उससे क्या बन सकता है, इसकी फिक्र करो। कुछ जरूर बन सकता होगा। कुछ तो बन ही सकता होगा । इस पुस्तक का श्रेय जाता है रामेन्द्र जी को जिन्होंने आर्थिक रूप से हमारी सहायता की, आप भी हमारी सहायता कर सकते हैं - देखें आखिरी पेज

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