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ताओ उपनिषाद (भाग-1) प्रवचन-10 भरे पेट और खाली मन का राज-ताओ-(प्रवचन-दसवां)
अध्याय 3 : सूत्र 2 इसलिए संत और प्रबुद्ध अपनी शासन व्यवस्था में उनके
उदरों को भरते हैं, किंतु
उनके मनों को शून्य करते हैं। वे उनकी हड्डियों को दृढ़तर बनाते हैं, परंतु उनकी
इच्छा-शक्ति को निर्बल करते हैं।
लाओत्से की सभी बातें उलटी हैं। उलटी हमें दिखाई पड़ती हैं। और कारण ऐसा नहीं है कि लाओत्से की बात उलटी है, कारण ऐसा है कि हम सब उलटे खड़े हैं। लाओत्से का एक शिष्य च्वांगत्से मरने के करीब था। अंतिम क्षणों में उसके मित्रों ने पूछा, तुम्हारी कोई इच्छा है? तो उसने कहा, एक ही इच्छा है मेरी कि इस पृथ्वी पर मैं पैरों के बल खड़ा था, उस परलोक में मैं सिर के बल खड़ा होना चाहता हूं। शिष्य बहुत परेशान हुए। और उन्होंने कहा, हमारी कुछ समझ में नहीं आता। क्या आप परलोक में उलटे खड़े होना चाहते हैं? तो च्वांगत्से ने कहा, जिसे तुम सीधा खड़ा होना कहते हो, उसे इतना उलटा पाया कि आने वाले जीवन में उलटा खड़े होकर प्रयोग करना चाहता हूं, शायद वही सीधा हो। लाओत्से की यह बात कि जो जानते हैं, जो जागे हुए हैं, वे अपनी शासन-व्यवस्था में लोगों के पेटों को तो भरते हैं, उदर को तो भरते हैं, उनकी भूख को तो पूरा करते हैं, लेकिन उनके मन को शून्य करते हैं। उनकी शरीर की तो सारी जरूरतें पूरी हों, इसका ध्यान रखते हैं; लेकिन उनका मन महत्वाकांक्षी न बने, इस दिशा में प्रयास करते हैं।
साधारणतः हम शरीर कितना ही कटे, कट जाए; गले, गल जाए; शरीर को कुर्बान करना पड़े, हो जाए; लेकिन मन की आकांक्षा पूरी हो, मन की वासनाएं पूरी हों। और मन की वासनाओं की वेदी पर हम शरीर को चढ़ाने को सदा तत्पर हैं, चढ़ाते हैं। हमारा पूरा जीवन मन की वासनाओं को पूरा करने में शरीर की हत्या है। और साधारणतः इसे ही हम बुद्धिमानी कहेंगे। लेकिन लाओत्से कहता है कि पेट तो लोगों के भरे हुए हों, लेकिन मन खाली।
मन के खाली होने का क्या अर्थ है? और पेट के भरे होने का क्या अर्थ है? लोग शरीर से तो स्वस्थ हों, शरीर तो उनका भरा-पूरा हो, शरीर तो उनका बलशाली हो, लेकिन मन उनका बिलकुल कोरा, खाली, शून्य, एम्पटी हो। और परम स्वास्थ्य की अवस्था वही है, जब शरीर भरा होता और मन खाली होता।
लेकिन हम सब मन को बहुत भर लेते हैं। हमारी पूरी जिंदगी मन को भरने की कोशिश है। विचारों से, वासनाओं से, महत्वाकांक्षाओं से मन को हम भरते चले जाते हैं। धीरे-धीरे शरीर तो हमारा बहुत छोटा रह जाता है, मन बहुत बड़ा हो जाता है। शरीर तो सिर्फ घसिटता है मन के पीछे।
लाओत्से कहता है, मन तो हो खाली! लाओत्से ने जगह-जगह जो उदाहरण लिए हैं, वे ऐसे हैं। लाओत्से कहता है कि जैसे बर्तन होता खाली। किस चीज को आप बर्तन कहते हैं? लाओत्से बार-बार पूछता है, किस चीज को बर्तन कहते हैं? बर्तन की दीवार को या उसके भीतर के खालीपन को?
आमतौर से हम बर्तन की दीवार को बर्तन कहते हैं। लाओत्से कहता है, दीवार तो बिलकुल बेकार है। वह जो भीतर खाली जगह है, वही काम में आती है। भरे हए बर्तन को तो कोई न खरीदेगा।
मकान आप दीवार को कहते हैं कि दीवार के भीतर जो खाली जगह है उसको? हम आमतौर से मकान दीवारों को कहते हैं। और जब हम मकान बनाने की सोचते हैं, तो दीवारें बनाने की सोचते हैं। लाओत्से कहता है, बड़ी उलटी तुम्हारी समझ है। मकान तो वह है, जो दीवारों के भीतर खाली जगह है। क्योंकि कोई आदमी दीवारों में नहीं रहता, खाली जगह में रहता है। और यह खाली जगह अगर भरी हो, तो मकान बेकार है।
तो शरीर तो सिर्फ दीवार है। वह तो मजबूत होनी चाहिए। वह भीतर जो मन है, वही महल है, वह खाली होना चाहिए। और उस महल के भीतर भी जो मनुष्य की चेतना है, आत्मा है, वह निवासी है। अगर मन खाली हो, तो ही वह निवासी ठीक से रह पाए, तो ही स्पेस
और जगह होती है। मन अगर बहुत भर जाता है, तो अक्सर हालत ऐसी होती है कि मकान तो आपके पास है, लेकिन इतना कबाड़ से भरा है कि आप मकान के बाहर ही सोते हैं, बाहर ही रहते हैं। क्योंकि भीतर जगह नहीं है।
अगर हम एक ऐसे आदमी की कल्पना करें, जिसके पास बड़ा महल है, लेकिन सामान इतना है कि भीतर जाने का उपाय नहीं है, तो बाहर बरामदे में ही निवास करता है। हम सब वैसे ही आदमी हैं। मन तो इतना भरा है कि वहां आत्मा के रहने की जगह नहीं हो
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