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व्याख्या
१४, सर-ह्रद-तडाग-शोषण-कर्म :
सरोवर, तालाब एवं नदी आदि के जल का सुखाना । इस से जल में रहने वाले त्रस जीर्णो की बहुत अधिक हिंसा होती है । १५. असती-जन-पोषण-कर्म :
५. कुलटा स्त्रियों को रखकर उनका पोषण कर के उन के द्वारा आजीविका चलाना । वेश्यावृत्ति करवाना । यह धंधा महान् पापपूर्ण है । अतः वर्जित है।
पन्द्रह कर्मादानों में दश कर्म हैं, और पांच वाणिज्य हैं । श्रावक के लिए ये सब के सब त्याज्य है । श्रावकों को महान् पापं से, महारम्भ से बचाने के लिए तथा उन्हें सभ्य सामाजिक प्रतिष्ठा प्राप्त कराने के लिए भगवान् ने कर्मादानों को निषिद्ध कहा है। पन्द्रह कदिान का त्याग श्रावक के मूल-व्रतों में गुण उत्पन्न करने वाला है, त्याग बुद्धि को निर्मल-बजाने बाला और-चित्त को समाधि में रखने वाला है।
- मे.पन्दरह कर्मादान सातवें व्रत के अतिचारों में हैं । सातवें व्रत के बीस अलिचार हैं, जिन में पांच तो भोजन सम्बन्धी हैं, और पन्दरह धधा सम्वन्धी हैं । श्रावक को ये जानने के योग्य तो हैं । किन्तु आचरण के योग्य नहीं हैं।
छब्बीस बोल को मर्यादा व्याख्या : १, उल्लणिया-विधि-परिमाण : प्रातः काल जब मनुष्य उठ.कर, शौच आदि से निवृत: हो कर, अपने हाथ-मुह को धोता है, तक पौंछने के लिए, वस्त्र-खण्ड की आवश्यकता पड़ती है। इस प्रकार के वस्त्र की मर्यादा करना । २. दन्त-धावनविधि-परिमाण :
रात में सो कर उठे हुए मनुष्य के मुख में सांस-उसांस के आने-जाने
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