________________
व्याख्या
१११
श्रावक के चौदह नियम श्रमण-संस्कृति का मूल लक्ष्य है -भोग से त्याग की ओर जाना। श्रावक के जीवन में विवेक का कश होना चाहिए । विना विवेक के हेय एवं उपादेय का बोध नहीं हो सकता। क्या छोड़ने योग्य है,
और क्या ग्रहण करने योग्य है ? यह जानना परम आवश्यक है। विवेकी श्रावक की सदा यह भावना रहा करती है, कि मैं आरम्भ और परिग्रह का त्याग करके असंयम से संयम की ओर बढ़ता रहूँ । श्रावक के लिए प्रतिदिन चौदह नियम चिन्तन करने की जो परम्पर। है' वह इस देशावकाशिक व्रत का ही एक रूप है। श्रावक के चोदह नियत इस प्रकार हैं१. सचित्त :
पृथ्वी, जल, वनस्पति, अग्नि और फल-फूल, धान, बीज आदि सचित्त वस्तुओं का यथाशक्ति त्याग करना । २. द्रव्य :
जो वस्तुएँ स्वाद के लिए भिन्न-भिन्न प्रकार से तैयार की जाती हैं, उनके सम्बन्ध में यह परिमाण करे, कि आज मैं इतने द्रव्यों से अधिक द्रव्य उपभोग में न लू गा। ३. विगय :
शरीर में विकृति एवं विकार को उत्पन्न करने वाले पदार्थों को विगय कहा गया है । जैसे-दुग्ध, दधि, घृत, तेल तथा मिठाई । उक्त पदार्थों का यथाशक्ति त्याग करे, अथवा मर्यादा करे, कि इससे अधिक न लूगी । ये पांच सामान्य विगय है, और मधु एवं मक्खन-ये दो विशेष विगय हैं । इन विशेष विगयों का बिना कारण के उपभोग करने का त्याग करे, और कारणवश उपभोग करने की मर्यादा करे। मदिरा एवं मांस-ये दो महाविगय हैं। श्रावक को इन दोनों का जीवन भर के लिए सर्वथा त्याग करना चाहिए ।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org