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व्याख्या
कहत है तिलोकरिख, बताओ ए वास प्रभु,
सदा हि उगंत सूर, वन्दणा हमारी है। आचार्य-वन्दना :
गुण हैं छतीस पूर, धरत धरम उर, मारत करम कूर, सुमति विचारी है। शुद्ध सो आचारवंत, सुन्दर है रूप कन्त, भणिया सभी सिद्धान्त, वाचणी सु प्यारी है। अधिक मधुर वैण, कोई नहिं लोपे केण, सकल जीवों का सेण, कीरति अपारी है। कहत है तिलोकरिख, हितकारी देत सिख,
ऐसे आचारज तार्क, वंदणा हमारी है ।। उपाध्याय-वन्दना:
पढ़त इग्यारे अंग, कर्मोसं करे जंग, पाखंडी को मान भंग. करण हशियारी है। चउदे पूरव धार, जाणत आगम सार, भवियन के सुखकार, भ्रमणा निवारी है। पढ़ावे भविक जन, स्थिर कर देत मन, तप कर तावे तन, ममता निवारी है। कहत है तिलोकरिख, ज्ञान भानु परतिख, ऐसे उपाध्याय ताकुं, वंदना हमारी है।
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