Book Title: Shravaka Pratikramana Sutra
Author(s): Vijaymuni Shastri
Publisher: Sanmati Gyan Pith Agra

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Page 152
________________ व्याख्या १४३ अन्नत्थणाभोगेणं, सहसागारेणं पच्छन्नकालेणं, दिसामोहेणं, साहुक्यणेणं, सब समाहिवत्तियागारेणं, वोसिरामि । अर्थ : पौरुषी का प्रत्याख्यान करता हूँ सूर्योदय से ले कर पहर दिन चढ़े तक अशन, पान, खाद्य और स्वाद्यचारों प्रकार के आहारों का त्याग करता हूँ। अनाभोग, सहसाकार, प्रच्छन्नकाल, दिशा-मोह, साधुवचन, सर्वसमाधिप्रत्याकार (किसो आकस्मिक शूल आदि तीव्र रोग की उपशान्ति के लिए औषध आदि ग्रहण कर लेना) उक्त छह आगार के सिवा चारों आहारों का त्याग करता हूँ। व्याख्या : पौरुषी में छह आगार है । दो पहले के हैं, शेष चार इस प्रकार हैं (अ) प्रच्छन्न-काल-बादल अथवा आंधी आदि के कारण सूर्य ढक जाने से पोरिसी पूर्ण होने की भ्रान्ति हो जाना। (ब) दिशा-मोह-पूर्व को पश्चिम समझ कर पोरिसी न आने पर भी सूर्य के ऊँचा चढ़ आने की भ्रान्ति से अशनादि-सेवन कर लेना। (स) साधु-वचन 'पोरिसी आ गई', इस प्रकार किसी आप्त पुरुष के कहने पर बिना पोरिसी आए ही पोरिसी पार लेना। (द) सर्व-समाधि-प्रत्ययाकार-किसी आकस्मिक शूल आदि तीव्र रोग की उपशान्ति के लिए औषधि आदि ग्रहण कर लेना । (३) पूर्वार्ध-सूत्र : मूल : उग्गए सूरे पुरिमड्ढं पच्चक्खाभि । चउव्विहं पि आहारं असणं, पाणं, खाइम, साइमं । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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