Book Title: Shravaka Pratikramana Sutra
Author(s): Vijaymuni Shastri
Publisher: Sanmati Gyan Pith Agra

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Page 160
________________ व्याख्या १५१ (११) प्रत्याख्यान-पारणा-सूत्र : मूल : उग्गए सूरे नमोक्कार-सहियं 'पच्चक्खाणं कयं तं पच्चक्खाणं सम्मं कारण फासियं, पालियं, तीरियं किट्टियं, सोहियं, आराहि । जं च न आराहों, तस्स मिच्छामि दुक्कडं । अर्थ : सूर्योदय होने पर जो नमस्कारसहित प्रत्याख्यान.... किया था, वह प्रत्याख्यान [मन, वचन] शरीर के द्वारा सम्यकरूप से स्पृष्ट, पालित, शोधित, तीरित, कीर्तित, एवं आराधित किया, एवं जो सम्यक् रूप से आराधित न किया हो, तो उसका दुष्कृत मेरे लिए मिथ्या हो। व्याख्या: प्रत्याख्यान पारने के छह अंग बतलाए गए हैं। अस्तु, मूलपाठ के अनुसार निम्नलिखित छहों अंगों से प्रत्याख्यान की आराधना करनी चाहिए १. फासियं (स्पृष्ट अथवा स्पर्शित)-गुरुदेव से या स्वयं विधिपूर्वक प्रत्याख्यान लेना। २. पालियं (लित)-प्रत्याख्यान को बार-बार उपयोग में ला कर सावधानी के साथ उसकी सतत रक्षा करना। ३ सोहियं (शोधित)--कोई दूषण लग जाय, तो सहसा उसकी शुद्धि, करना, अथवा 'सोहियं' का संस्कृत रूप ‘शोभित' भी होता है । इस दशा में अर्थ होगा--गुरुजनों को साथियों को अथवा अतिथि जनों को भोजन देकर स्वयं भोजन करना, प्रत्याख्यान की शोभा बढ़ाना । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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