Book Title: Shravaka Pratikramana Sutra
Author(s): Vijaymuni Shastri
Publisher: Sanmati Gyan Pith Agra

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Page 159
________________ १५० श्रावक प्रतिक्रमण सूत्र अर्थ : विकृतियों का त्याग करता हैं । अनाभोग, सहसा कार, लेपालेप, गृहस्थसंसृष्ट, उत्क्षिप्तविवेक, प्रतीत्यम्रक्षित, पारिष्ठापनिक, महत्तराकार, सर्वसमाधिप्रत्ययाकार-उक्त नव आगारों के सिवा विकृति का त्याग करता हूँ। व्याख्या: निविकृति के नौ आगार हैं, जिनमें से आठ आगारों का वर्णन तो पहले के पाठों में यथास्थान आ चुका है। प्रतीत्यम्रक्षित नामक आगार नया है, जिसका वर्णन इस प्रकार है-- भोजन बनाते समय जिन रोटी आदि पर सिर्फ ऊँगली से घी आदि चुपड़ा गया हो, तो ऐसी वस्तुओं को ग्रहण करना-प्रतीत्यम्रक्षित आगार कहलाता है । इस आगार का यह भाव है कि-घृत आदि विकृति का त्याग करने वाला साधक धारा के रूप में घृत आदि नहीं खा सकता । हाँ, घी से साधारणतौर पर चुपड़ी हुई रोटियाँ खा सकता है । इस सम्बन्ध में एक प्रामाणिक कथन इस प्रकार है "प्रतीत्य सर्वथा रूक्षमण्डकादि, ईषत्सौकुमार्यप्रतिपादनाय यदंगुल्या ईषद्धृतं गृहीत्वा प्रक्षितं तदा कल्पते, न तु धारया।" -तिलकाचार्य-कृत, देवेन्द्र प्रतिक्रमण-वृत्ति १. "म्रक्षित'-चुपड़े हुए को कहते हैं । और प्रतीत्यम्रक्षित कहते हैं। जो अच्छी तरह चुपड़ा हुआ न हो, किन्तु चुपड़ा हुआ जैसा भी हो; अर्थात्-म्रक्षिताभास हो। 'म्रक्षितमिव यद् वर्तते तत्प्रतीत्यम्रक्षित प्रक्षिताभासमित्यर्थ ।' -प्रवचनसारोद्धार वृत्ति Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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