Book Title: Shravaka Pratikramana Sutra
Author(s): Vijaymuni Shastri
Publisher: Sanmati Gyan Pith Agra

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Page 155
________________ १४६ श्रावक प्रतिक्रमत्र-सूत्र सर्प और अग्नि आदि का उपद्रव होने पर भी अन्यत्र जा कर भोजन किया जा सकता है । सागारिक शब्द से सर्पादि का भी ग्रहण है। (स) गृर्वभ्युत्थान-गुरुजन एवं किसी अथितिविशेष के आने पर उनका विनय-सत्कार करने के लिए उठना या खड़े होना ।। (५) एक्कासणं एगट्ठाणं पच्चक्खामि । तिविह पि आहारं-असणं, खाइम, साइमं । अन्नत्थणाभोगेणं, सहसागारेणं, सागारियागारेणं अब्भदाणेणं. पारिटठावणियागारेणं, महत्तरागारेणं सव्वसमाहिवत्तियागारेणं वोसिरामि । अर्थ : एकाशनरूप एकस्थान का (प्रत) ग्रहण करता हूँ। अशन, खाद्य एवं स्वाद्य-तीनों आहारों का त्याग करता है। अनाभोग, सहसाकार, सागारिकाकार, गुरु-अभ्युत्थान, पारिष्ठापनिकाकार, महत्तराकार और सर्वसमाधिप्रत्ययाकार-उक्त सात आगारों के सिवा आहार का त्याग करता हूँ। (६) आचाम्ल-सूत्र : मूल : आयंबिलं पच्चक्खामि । अन्नत्थणाभोगेणं, सहसागारेणं, लेवालेवेणं, उखक्खित्तविवेगेणं, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org |

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