Book Title: Shravaka Pratikramana Sutra
Author(s): Vijaymuni Shastri
Publisher: Sanmati Gyan Pith Agra

Previous | Next

Page 144
________________ व्याख्या गुरु मित्र गुरु मात, गुरु सगा, गुरु तात, गुरु भूप, गुरु प्रात, गुरु हितकारी है, गुरु रवि, गुरु चन्द्र, गुरु पति, गुरु इन्द्र, गुरु देव दे आणंद, गुरु पद भारी है। गुरु सिखात ज्ञान-ध्यान, गुरु. देत दान मान गुरु देत मोक्ष-भान सदा. उपकारी है, कहत है तिलोकरिख, भली-भली देवे सिख, पल-पल गुरुजी को, वंदणा हमारी है ।। :४६ : अनन्त' चौबीसी ते नमू, सिद्ध अनन्ता कोड़ । केवली ज्ञानी थेवर सभी; वंदू बे कर जोड़ ॥ दो कोड़ी केवलधरा, विहरमान जिन बीस । सहस युगल कोड़ो नमू; साधू वंदू निस दोस । :४७.: समुच्चय जीवों से क्षमापना सात लाख पृथ्वीकाय, सात लाख अप्काय, सात लाख तेजस्काय, सात लाख वायुकाय । ___ दश लाख प्रत्येक वनस्पतिकाय, चौदह लाख साधारण वनस्पतिकाय । दो लाख द्वीन्द्रिय, दो लाख त्रीन्द्रिय, दो लाख चतुरिन्द्रिय । चार लाख देवता, चार लाख नारक, चार लाख तिर्यञ्च पञ्चेन्द्रिय और चौदह लाख मनुष्य । १७ यह पाठ कहीं पढ़ा जाता है, कहीं नहीं । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 142 143 144 145 146 147 148 149 150 151 152 153 154 155 156 157 158 159 160 161 162 163 164 165 166 167 168 169 170 171 172 173 174 175 176 177 178