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अर्थ :
श्रावक प्रतिक्रमण-सूत्र संलेखना विधि: (जीवन के अन्त में) मारणान्तिक संलेखना के समय में, पौषध-शाला का प्रतिलेखन करके, पौषध-शाला का प्रमार्जन करके, दर्भ आदि का संथारा (बिछौना) बिछा कर उस पर चढ़ कर, पूर्व या उत्तर दिशा में मुख करके पर्यक तथा पद्मासन आदि आसन से बैठ कर, दश अंगुली-सहित दोनों हाथ जोड़ कर मस्तक पर अंजलि करके इस प्रकार बोलेनमस्कार हो, अरिहंत भगवान् को, यावत् सिद्धिस्थान को, जो प्राप्त हो गए हैं। नमस्कार हो, मेरे धर्माचार्य को, यावत् सिद्धि-स्थान की प्राप्ति के लिए साधना करने वाले को । मैं यहाँ से वहाँ रहे भगवान को वन्दना करता हूँ, भगवान् मुझे देख रहे हैं, मेरी वन्दना को स्वीकार करें। वन्दना एवं नमस्कार करके इस प्रकार बोलेप्रतिज्ञा पहले भी मैंने प्रणातिपात यावत् मिथ्या-दर्शन-शल्य तक सब पापों का त्याग किया था। अब भी मैं सर्व प्रकार के प्राणातिपात का, मृषावाद का, अदत्तादान का मैथुन का और परिग्रह का त्याग करता हूँ। समस्त क्रोध यावत् मिथ्या-दर्शन-शल्य तक के न करने योग्य सावद्ययोगों का त्याग करता हूँ। जीवनभर के लिये तीन करण और तीन योग से, न करूंगा न करवारूगा और न करते हुओं का अनुमोदन करूंगा मन से, वचन से और काय से।
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