Book Title: Shravaka Pratikramana Sutra
Author(s): Vijaymuni Shastri
Publisher: Sanmati Gyan Pith Agra

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Page 135
________________ श्रावक प्रतिक्रमण-सूत्र व्याख्या : संथारा : .. जैन-धर्म की निवृत्ति प्रधान साधना में 'संथारा' अर्थात् संस्तारक का बहुत बड़ा महत्व है । जीवनभर की अच्छी बुरी क्रियाओं का लेखाजोखा लगा कर अन्त समय में, समस्त पापप्रवृत्तियों का त्याग करना, मन, वचन एवं काय को संयम में रखना, ममत्व-भाव से मन को हटा कर आत्म-चिन्तन में लगाना, भोजन पानी तथा अन्य सब उपाधियों को त्याग कर आत्मा को निर्द्वन्द्व एवं निःस्पृह बनाना-संथारा का महान आदर्श है । जैन धर्म का आदर्श है-जब तक जीओ विवेकपूर्वक धर्माराधन करते हुए आनन्द से जीओ, और जब मृत्यु आ जाए, तो विवेकपूर्वक धर्माराधना में आनन्द से ही मरो । साधक-जीवन का आदर्श हैसंयम की साधना के लिए अधिक से अधिक जीने का प्रयत्न करो, और जब देखो कि अब जीवन की लालसा में अपने धर्म से विमुख होना पड़ रहा है, तो अपने धर्म पर, अपने संयम में सुदृढ़ रहो, समाधिमरण के लिए तैयार रहो । इसी को संथारा की साधना कहते हैं । अतिचार : संलेखना के पांच अतिचार हैं, जो श्रमणोपासक को जानने तो चाहिए, (किन्तु) उनका आचरण नहीं करना चाहिए । वे इस प्रकार हैंइहलोकाशंसा-प्रयोग : इस लोक के सुख-साधनों की इच्छा करना। जैसे- मैं राजा बनू, मैं चक्रवर्ती बन्। परलोकाशंसा-प्रयोग : परलोक सुख-साधनों की इच्छा करना । जैसे-मैं देव बनू, मैं इन्द्र बनू । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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