________________
व्याख्या
११७
__ पौधवत की साधना को एकमात्र यही उद्देष्य है, कि जीवन में भोग ही न रह कर त्याग भी आए ।
अतिचार :
पौधवत के पाँच अतिचार हैं, जो श्रमणोपासक को जानने के योग्य तो हैं, (किन्तु) आचरण के योग्य नहीं । वे इस प्रकार हैंअप्रतिलेखित-दुष्प्रतिलेखित-शय्या-संस्तारक :
पौषध-काल में काम में लिए जाने वाले शय्या=मकान, पाट, बिछौना, एवं संथारा आदि का तथा उपकरणों का प्रतिलेखन न करना अथवा विधि-पूर्वक प्रतिलेखन न करना । अप्रमाजित-दुष्प्रमार्जित-शय्या-संस्तारक ____ मकान, पाट, विस्तर एवं धर्मोपकरण आदि का प्रमार्जन ना अथवा विधि-पूर्वक प्रमार्जन न करना । . अप्रतिलेखित-दुष्प्रतिलेखित-उच्चारप्रसवगभूमि : .. शरीरधर्म से निवृत्ति होने के लिए" अर्थात् मल-मूत्र के त्याग के लिए भूमि का प्रतिलेखन न किया हो, अथवा विधिपूर्वक न किया हो । अप्रमाजित-दुष्प्रमार्जित-उच्चार-प्रस्रवणभूमिः ___मल-मूत्र के त्यागने के लिए भूमि का प्रमार्जन न किया हो, अथवा विधि-पूर्वक प्रमार्जन न किया हो। पौषधोपवास-समननुपालन :
पौषधवत का विधिवत् पालन न करना, अथवा सम्यक् रीति से पूरा न करना । समय से पूर्व ही पौषध पार लेना आदि । विशेष ज्ञातव्य :
यह पौषध चौविहार या तिविहार दोनों तरह से हो सकता है। जब तिविहार करना हो, तो पाठ में 'पाण' शब्द का प्रयोग न करना
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org