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व्याख्या
इत्यादि अनर्थदण्ड के सेवन का प्रत्याख्यान (त्याग) करना। जीवनपर्यन्त, दो करण, तीन योग्य से न करूं', न कराऊं, मन से, वचन से, काय से । इस अष्टम अनर्थ-दण्डविरमण-व्रत के श्रमणोपासक को पांच अतिचार जानने के योग्य हैं, (किन्तु) आचरण के योग्य नहीं है। जैसे कि-काम-उद्दीपक-कथा करना, भाण्ड की तरह कुचेष्टा करना, बिना प्रयोजन के अधिक बोलना, अधिकरण (हिंसाकारी साधन) का संग्रह करना, उपभोग-परिभोग की वस्तुओं का मर्यादा से अधिक रखना। जो मैंने दिवससम्बन्धी अतिचार किए हों, तो उस का पाप मेरे लिए निष्फल हो ।
व्याख्या : अनर्थदण्ड
मनुष्य यदि अपने जीवन को विवेक-शून्य एवं प्रमत्त रखता है, तो बिना प्रयोजन भी वह हिंसा आदि कर बैठता है । मन, वचन और काय को सदा संयत रखना चाहिए। प्रत्येक क्रिया विवेक तथा यतना से करनी चाहिए । अप्राप्त भोगों के लिए मन में लालसा रखना। प्राप्त भोगों की रक्षा के लिए चिन्ता करता । बुरे विचार एवं बुरे संकल्प रखना। पापकार्य के लिए किसी को प्रेरणा देना, परामर्श देना । होथ एवं मुख आदि से अभद्र चेष्टाए करना । कामभोगसम्बन्धी वार्तालाप में रस लेना, बात-बात में गाली-गलौज करना । व्यर्थ में हिंसाकारक शस्त्रों का संग्रह करना । आवश्यक्ता से अधिक भोग-सामग्री एकत्र करना । तेल एवं घृत आदि के पात्र बिना ढ़के खुले मह रखना। यह सब अनर्थ-दण्ड है।
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