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श्रावक प्रतिक्रमण-सूत्र
बिना प्रयोजन की हिंसा है । साधक को उक्त सब अनर्थ-दण्डों से निवृत रहना चाहिए। अनर्थ-दण्डविरमण-व्रत ____ अष्टम व्रत है-अनर्थदण्ड से विरत होना । वह अनर्थ-दण्ड चार प्रकार का है.। जैसे कि---- अपध्यानाचरितः
जो ध्यान अप्रशस्त है, बुरा है-वह अपध्यान है । ध्यान का अर्थ है-किसी भी प्रकार के विचारों में चित्त की एकाग्रता । व्यर्थ के बुरे संकल्पों में चित्त को एकाग्र क्रूजे, से जो अनर्थ-दण्ड होता है, उसको अपध्यानाचरित अनर्थदण्ड कहते हैं । अपध्यान के दो भेद हैं-आर्त-ध्यान और रौद्रध्यान् । प्रमादाचरित :
प्रमाद का आचरण करना । प्रमाद से आत्मा का पतन होता है। प्रमाद पांच हैं-मद, विषय, कषाय, निद्रा और विकथा । ये पांच प्रमाद अनर्थ-दण्डरूप हैं । अमर्यादितरूप निद्रा भी साधक के लिए त्याज्य है। हिंस्र-प्रदान :
हिंसा में सहायक होना । जितसे हिंसा होती है, ऐसे अस्त्र, शस्त्र आग, विष आदि हिंसा के साधन अन्य विवेकहीन ब्यक्तियों को दे देना, हिंसा में सहायक होना है। पापोपदेश :
पापकर्म का उपदेश देना है । जिसः उसदेश से पाप-कर्म में प्रवृति हो, पाप-कर्म की अभिवृद्धि हो, उपदेश सुनने वाला पाप-कर्म करने लगे, वह उपदेश अनर्थ-वण्डरूप है। अतिचार :
अनर्थ-दण्ड-विरमणव्रत के पांच अतिचार हैं, जो श्रमणोपासक को
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