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श्रावक प्रतिक्रमण-सूत्र
मूल :
( ३३ ) अष्टम अनर्थ-दण्ड-विरमण-व्रत
अट्ठमं वयं अणट्ट-वेरमणं । से य अणटदंडे चउविहे पन्नत्त । तं जहा-अवज्झाणाचरिए, पमायाचरिए, हिंसप्पयाणे, पाव-कम्मोवएसे । इच्चेवमाइयस्स अणहदंडासेवणस्स पच्चक्खाणं । जावज्जीवाए, दुविहं तिविहेणं, न करेमि, न कारवेमि, मणसा, वयसा, कायसा। एयस्स अट्ठमस्स अणट्ठदंड-वेरमणस्स समणोवासएणं पंच अइयारा जाणियव्वा, न समायरियव्वा । तं जहा-कंदप्पे, कुक्कुइए, मोहरिए, संजुत्ताहिगरणे, उवभोग-परिभोगाइरिगे । जो मे देवसिओ अइयारो कओ, तस्स मिच्छामि दुक्कडं । अष्टमवत है-अनर्थदण्ड से विरत होना। वह अनर्थ-दण्ड चार प्रकार का है। जैसे कि-अपध्यान (बुरा चिन्तन) आचरित करना, प्रमाद का आचरण करना, हिंसाकारी शस्त्र आदि का बनाना एवं देना, पापकर्म का उपदेश करना।
अर्थ :
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