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विशुद्धि होती है। प्रतिक्रमण एक ऐसा अनमोल रसायन है जिसका सेवन सभी के लिए हितावह है । जैन जगत् के ज्योतिर्धर आचार्य श्री हरिभद्र सूरि ने प्रतिक्रमण को तृतीय वैद्य की औषधि के समान बताया है जो रोग होने पर लाभ करती है। रोग को नष्ट कर रोगी को स्वस्थ और प्रसन्न बनाती है तथा रोग न होने पर भी उसके सेवन से शरीर के कण-कण में ओज प्रदीप्त होता है। शरीर सशक्त और तेजस्वी बनता है।
श्रावकं प्रतिक्रमण सूत्र के अनेक संस्करण विभिन्न संस्थाओं के द्वारा व व्यक्तिगत रूप से प्रकाशित होते रहे हैं तथापि प्रस्तुत संस्करण की अपनी मौलिक विशेषता है। शुद्ध पाठ, नयनाभिराम छपाई व सफाई तथा पाठों का व्यवस्थित क्रम । जो पाठ जहाँ पर बोला जाता है वहीं पर उसे उट्टंकित कर दिया गया है जिससे जिन जिज्ञासुओं को प्रतिक्रमण नहीं आता है, वे भी पुस्तक पढ़कर सहजतया प्रतिक्रमण कर सकते हैं। उन्हें इधर-उधर टटोलने की आवश्यकता नहीं है। जिज्ञासुओं की प्रबल प्रेरणा से प्रेरित होकर ही परम श्रद्धेय उपाध्याय श्री पुष्कर मुनि जी महाराज ने अन्य आवश्यक लेखन-कार्य में व्यस्त होकर भी समय निकालकर इसे तैयार
१. प्रतिक्रमणमप्येवं, सतिदोषे प्रमादतः । तृतीयौषधकल्पत्वाद्, द्विसंध्यमथवाऽसति ।।
-आवश्यक हारिभद्रीयावृत्ति