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सम्यक्त्व के पाँच अतिचार अरिहंतो मह देवो, जावजीवं सुसाहुणो गुरुणो। जिण-पण्णत्तं तत्तं, इय सम्मत्तं मए गहियं ॥१॥ परमत्थसंथवो वा, सुदिट्टपरमत्थसेवणा वा वि। वावण्णकुदंसणवजणा, य सम्मत्त-सद्दहणा॥२॥
इस प्रकार श्रीसमकितरत्न पदार्थ के विषय में जो कोई अतिचार लगा हो तो आलोऊँ
श्रीजिन वचन में शंका की हो, पर-दर्शन की वांछा की हो, धर्मफल के प्रति संदेह किया हो, पर-पाखण्डी की प्रशंसा की हो, पर-पाखण्डी का संस्तव (परिचय) किया हो, तो मेरे सम्यक्त्वरूप रत्न पर मिथ्यात्वरूपी रज-मैल लगा हो, तो तस्स मिच्छामि दुक्कडं।
श्रावक प्रतिक्रमण सूत्र