Book Title: Shatpahud Granth
Author(s): Kundakundacharya
Publisher: Babu Surajbhan Vakil

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Page 12
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir जीवादिश्रद्दधनं सम्यक्तं जिनवरैः निर्दिष्टम् । व्यवहारात् निश्चयतः आत्मा भवति सम्यक्त्वम् ॥ अर्थ-जीवादि पदार्थों के श्रद्धान करने को जिनेन्द्रदेव ने व्यवहार नय से सम्यग्दर्शन कहा है और निश्चय नय से आत्मा के श्रद्धान को ही सम्यक्त्व कहते है। एवं जिणपण्णत्तं देसण रयणं धरेहमावेण । सारंगुण रयणत्तय सोवाणं पढम मोक्खस्स ॥२१॥ एवं जिनप्रणीतं दर्शनरत्नं धरतभावेन । सारंगुण रत्नानाम् सोपानं प्रथमं मोक्षस्य ॥ अर्थ-भो सजनो उस दर्शन अर्थात् श्रद्धान को धारण करो जो कि जिनेन्द्रदेव का कहा हुआ है, जो गुण रूपी रत्नों का सार है और जो मोक्ष मन्दिर के पढ़ने की पहली सीढ़ी है। जं सकइ तं कीरइजं च ण सक्कइ तं य सद्दहणं । केवलिजिणेहि भणियं सद्दहमाणस्स सम्पतं ॥२२॥ यत् शक्नोति तत् क्रियते यच्च न शक्नुयात् तस्य च श्रद्दधन । केवलिनिनैः मणितं श्रद्दधानस्य सम्यक्त्वम् ।। अर्थ-जिसका आचरण कर सकै उसका करै और जिसका आचरण न कर सकै उसका श्रद्धान करै, श्रद्धान करनेवालों को ही सम्यक्त होता है ऐसा केवली भगवान ने कहा है। भावार्थ-श्रद्धान और आचरण दोनों करने चाहिये, यदि आचरण न हो सके तो श्रद्धान तो अवश्य ही करना चाहिये । दसण णाण चरिते तवविणये णिच काळ मुपसत्था । एदे दु धन्दणीया जे गुणवादी गणधरानां ॥२३॥ दर्शन ज्ञान चरित्रे तपोविनये नित्य काल सुप्रस्वस्थाः । एते तु वन्दनीया ये गुणवादी गणधराणाम् ॥ For Private And Personal Use Only

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