Book Title: Shatpahud Granth
Author(s): Kundakundacharya
Publisher: Babu Surajbhan Vakil

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Page 11
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir करके शीलवान होता है, और उस शील के फल से अभ्युदय अर्थात् स्वर्गादिक के सुख को पाकर क्रम से निर्वाण को प्राप्त करता है। जिण वयण ओसहमिणं विसय मुह विरेयणं अमिदभूयं । जरमरण वाहि हरणं खयकरणं सव्वदुक्खाणं ॥१७॥ जिन वचन मौषधिमिदं विषय सुख विरेचनम मृतभूतम् । जरामरण व्याधि हरणं क्षयकरणं सर्वदुःखानाम् ॥ अर्थ-यह जिन बचन विषय सुख को अर्थात् इन्द्रियों के विषय भोगों में जो सुख मान रक्खा है उसको दूर करने में औषधि के समान हैं और बुढ़ापे और मरने की व्याधि को दूर करने और सर्ब दुखों को क्षय करने में अमृत के समान हैं। एकं जिणस्स एवं वीयं उकिट सावयाणंतु । अवरीढयाण वइयं चउथं पुण लिंग दंसणेणच्छी ॥१८॥ एकं जिनस्य रूपं द्वितीयम् उत्कृष्ट श्रावकानां तु । अपरस्थितानां तृतीयं चतुर्थ पुनः लिङ्ग दर्शनेनास्ति । अर्थ-जिन मत में तीन ही लिङ्ग अर्थात् बेश होते हैं, पहला जिन स्वरूप नग्न दिगम्बर, दूसरा उत्कृष्ट श्रावको का, और तीसरा आर्यकाओं का, अन्य कोई चौथा लिङ्ग नहीं है। छह दव्य णव पयत्था पंचच्छी सच तच्चणिदिट्ठा । सद्दहइ ताण रूवं सो सदिट्टी मुणेयव्वो ॥१९॥ षट द्रव्याणि नव पदार्थाः पञ्चास्ति सप्त तत्वानि निर्दिष्टानि । श्रद्धाति तेषां रूपं स सद्दृष्टिः ज्ञातव्यः ।। अर्थ-छह द्रव्य, नवपदार्थ, पञ्चास्तिकाय, और सात तत्व जिनका उपदेशश्रीजिनेंद्र ने किया है उनके सरूप का जो श्रद्धान करता है उसको सम्यग्दृष्टि जानना चाहिये। जीवादी सद्दहण सम्मतं जिनवरोहि वण्णत्तं । ववहारा णिच्छयदो अप्पाणं हवइ सम्मतं ॥२०॥ For Private And Personal Use Only

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