Book Title: Shatpahud Granth
Author(s): Kundakundacharya
Publisher: Babu Surajbhan Vakil

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Page 9
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ( ४ ) यथा मूल विनष्टेद्रुमस्य परिवारस्य नास्तिपरिवृद्धिः । तथा जिनदर्शन भ्रष्टाः मूलविनष्टा न सिध्यन्ति ॥ अर्थ - जैसा कि वृक्ष की जड़ कट जाने पर उस वृक्ष की शाखा आदिक नहीं बढ़ती हैं इस ही प्रकार जो कोई जैन मत की श्रद्धा से भ्रष्ट है उस की भी जड़ नाश हो गई है वह सिद्ध पद को प्राप्त नहीं कर सक्ता है । जह मूलओखन्धो साहा परिवार बहुगुणी होई । तह जिणदंसणमूलो णिोि मोक्खमग्गस्स || ११|| यथा मूलातस्कन्धः शाखा परिवार बहुगुणो भवति । तथा जिनदर्शन मूलो निर्दिष्टः मोक्षमार्गस्य ॥ अर्थ - जैसे कि वृक्ष की जड़ से शाखा पत्ते फूल आदि बहुत परिवार और गुणवाला स्कन्ध ( वृक्ष का तना ) होता है इस ही प्रकार मोक्ष मार्ग की जड़ जैनमत का दर्शन ही बताया गया है । जे दंसणेसु भट्टा पाए पाडन्ति दंसणधराणां । ते तिलुल्लआ वोहि पुण दुल्लहा तेसि || १२ || ये दर्शनेषु भ्रष्टा पादेपातयन्ति दर्शन घराणाम् | ते भवन्तिलमूकाः वोधिः पुनर्दुर्लभाः तेषाम् ॥ अर्थ - जो [ धर्मात्मा पने का भेष धरने वाले ] दर्शन में भ्रष्ट हैं और सम्यक दृष्टि पुरुषों को अपने पैरों में पड़ाते हैं अर्थात् नमस्कार कराते हैं वह लूले और गूंगे होते हैं और उनको बोध अर्थात् रत्नत्रय की प्राप्ति होना दुर्लभ है । जेपि पडन्ति च तेसिं जाणन्त लज्जगारव भयेण । तेसिंपि णत्थि बोही पावं अणमोअ माणाणं ॥ १३ ॥ येपि पतन्ति च तेषां जानन्तो लज्जागौरव भयेन । तेषामपि नास्ति बोधिः पापं अनुमन्य मानानाम् ॥ For Private And Personal Use Only

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