Book Title: Shatpahud Granth Author(s): Kundakundacharya Publisher: Babu Surajbhan Vakil View full book textPage 8
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ( ३ ) अर्थ- - जो पुरुष पञ्चम काल की दुष्टता से बच कर सम्यक्त, ज्ञान, दर्शन, बल, बीर्य में बढ़ते हैं वह थोड़े ही समय में केवल ज्ञानी होते हैं। सम्पत सलिलपवाहो णिचं हियए पवहए जस्स । कम्मं वालुयवरणं वंधुव्विय णासए तस्स ॥ ७ ॥ सम्यक्त्व सलिलप्रवाहः नित्यं हृदये प्रवर्तते यस्य । कर्म वालुकावरणं बद्धमपि नश्यति तस्य ॥ अर्थ - जिस पुरुष के हृदय में सम्यक्त रूपी जल का प्रवाह निरन्तर बहता है उसको कर्म रूपी बालू (धूल) का आवरण नहीं लगता है और पहला बन्धा हुवा कर्म भी नाश होजाता है । जे दंसणेसु भट्टा णाणे भट्टा चरित भट्टाय । दे भट्टभिट्टा सेसंपि जणं विणासंति ॥ ८ ॥ ये दर्शनेषु भ्रष्टाः ज्ञान भ्रष्टा चरित्र भ्रष्टाश्च । एते भ्रष्टविभ्रष्टाः शेषमपि जनं विनाशयन्ति ॥ अर्थ – जो पुरुष दर्शन में भ्रष्ट हैं, ज्ञान में भ्रष्ट हैं और चारित्र मैं भ्रष्ट हैं वह भ्रष्टों में भी अधिक भ्रष्ट हैं और अन्य पुरुषों को भी नाश करते हैं अर्थात् भ्रष्ट करते हैं। जोकोवि धम्मसीलो संजमतव नियम जोयगुणधारी । तस्सं य दोस कहन्ता भग्गभग्गात्तणं दन्ति ॥ ९ ॥ यः कोपि धर्मशीलः संयमतपो नियमं योगगुणाधारी । तस्य च दोषान् कथयन्तः भग्नाभम्नत्वं ददाति ॥ अर्थ -- जो धर्म में अभ्यास करने वाले और संयम, तप, नियम योग, और गुणों के धारी हैं ऐसे पुरुषों को जो कोई दोष लगाता है वह आप भ्रष्ट है और दूसरों को भी भ्रष्टता देता है । जह मूल म्भिविणट्टे दुमस्स परिवार णत्थिपरिवट्टी | तह जिणदंसणभट्टा मूलविणद्वा ण सिज्झति ॥ १०॥ For Private And Personal Use OnlyPage Navigation
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