Book Title: Shatkhandagama Pustak 02
Author(s): Pushpadant, Bhutbali, Hiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
Publisher: Jain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati

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Page 19
________________ षट्खंडागमकी प्रस्तावना संततकालकायमतिसच्चरितं दिनदिं दिनके वीये तळेदंदु मिक नियमंगळनांतुविवेकबोधदाहं तवे कंतु मम्युगिदे सचरितं कुलचन्द्रदेवसै द्वांतमुनीन्द्ररूर्जितयशोज्वलजंगमतीर्थरुद्भवम् ॥ ३ ॥ इसका हिन्दीमें सारानुवाद हम इसप्रकार करते हैं श्रीपअनन्दि सिद्धान्तमुनीन्द्ररूपी चन्द्रमाका उदय विद्वद्गणरूपी कुमुदिनी समूहका मंडन था। वे प्रफुल्ल कमलके समान सुशोभित थे, तथा उनके मनमें निरंतर शान्त भावना और पावन सुख-भोगमें निमग्न सरस्वती देवीका निवास होनेसे वे सहज ही सुंदर शरीरके अधिकारी हो गये थे। वे दिव्य और सेव्य कुलभूषण सिद्धान्तमुनीन्द्र अपने ऊर्जित यशसे उज्वल होनेके कारण जंगम तीर्थके समान थे। मंत्रण, मोक्ष और सद्गुणोंके समुद्रको बढ़ानेमें वे चन्द्रके समान थे, तथा सरस्वती देवीके चित्तरूपी वल्लीके पदपंकज (के निवास ) से गर्वयुक्त विद्वत्समुदायके हृदयकमलके अंतर रागसे उनका मन रंजायमान था । ऊर्जित यशसे उज्वल कुलचन्द्र सैद्धान्तमुनीन्द्रका उद्भव जंगमतीर्थके समान था। निरन्तर कालमें काय और मनसे सच्चारित्रवान् , दिनोंदिन शक्तिमान् और नियमवान् होते हुए उन्होंने विवेकबुद्धिद्वारा ज्ञान-दोहन करके कामदेवको दूर रखा। यह सच्चारित्र ही कामदेवके क्रोधसे वचनेका एकमात्र मार्ग है । इसप्रकार इन तीन कनाड़ी पद्योंकी प्रशस्तिमें क्रमशः पद्मनन्दि सिद्धान्तमुनीन्द्र, कुलभूषण सिद्धान्तमुनीन्द्र और कुलचन्द्र सिद्धान्तमुनीन्द्रकी विद्वत्ता, बुद्धि और चारित्रकी प्रशंसा की गई है । पर उनसे उनके परस्पर सम्बन्ध, समय व धवलग्रंथ या उसकी प्रतिसे किसी प्रकारके सम्बन्धका कोई ज्ञान नहीं होता । अतएव इन बातोंकी जानकारीके लिए अन्यत्र खोज करना भावश्यक प्रतीत हुआ। श्रवणवेल्गुलके अनेक शिलालेखोंमें पद्मनन्दि मुनिके उल्लेख आये हैं। पर सब जगह एक ही पअनन्दिसे तात्पर्य नहीं है । उन लेखोंसे ज्ञात होता है कि भिन्न भिन्न कालमें पानन्दि नाम व उपाधिधारी अनेक मुनि आचार्य हुए हैं। किन्तु लेख नं. १० (६४ ) में हमारे प्रस्तुत पअनन्दिसे अभिप्राय रखनेवाला उल्लेख ज्ञात होता है, क्योंकि, उसमें पमनन्दि सैद्धान्तिकके Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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