Book Title: Shatkhandagama Pustak 02 Author(s): Pushpadant, Bhutbali, Hiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye Publisher: Jain Sahityoddharak Fund Karyalay AmravatiPage 18
________________ १ ताडपत्रीय प्रतिके लेखनकालका निर्णय सत्प्ररूपणाके अन्तकी प्रशस्ति धवल सिद्धान्तकी प्राप्त हस्तलिखित प्रतियोंमें सत्प्ररूपणा विवरणके अन्तमें निम्न कनाड़ी पाठ पाया जाता है संततशांतभावनदः पावनभोगनियोग वाकांतेय चित्तवृत्तियलविं नललंदनं गरूपं तदिदं गर्ज परिपोगेज सोशतपद्मगंदिसिद्धांतमुनींद्रचन्द्रनुदयं बुधकरवषंडमंडनं मंतणमेणोसुद्गुणगणक भेदवृद्धि अनन्तनोन्त वाक्कांतेय चित्तवल्लीय पदर्पिण 'दर्पबुधालि हृत्सरोजांतररागरंजितदिनं कुलभूषण "दिव्यसैद्धान्तमुनींद्रनुज्वलयशोजंगमतीर्थमलरु संततकालकायमतिसच्चरितं दिनदि दिनक्के वीर्य तउतिईदुश्य वियमइममेयो लांतवविट्ठमोहदाहं तवे कंतु मुन्तुगिदे सच्चरित कुलचन्द्रदेवसैद्धान्तमनीन्द्ररूर्जितयशोज्वलजंगमतीर्थ मल्लरू" मैंने यह कनाड़ी पाठ अपने सहयोगी मित्र डाक्टर ए. एन्. उपाध्याय प्रोफेसर राजाराम कालेज कोल्हापुर, जिनकी मातृभाषा भी कनाड़ी है, के पास संशोधनार्थ भेजा था। उन्होंने यह कार्य अपने कालेजके कनाड़ी भाषाके प्रोफेसर श्री. के. जी. कुंदनगार महोदयके द्वारा करा कर मेरे पास भेजनेकी कृपा की । इसप्रकार जो संशोधित कनाड़ी पाठ और उसका अनुवाद मुझे प्राप्त हुआ, वह निम्न प्रकार है । पाठक देखेंगे कि उक्त पाठ परसे निम्न कनाड़ी पद्य सुसंशोधितकर निकालनेमें संशोधकोंने कितना अधिक परिश्रम किया है । संततशांतभावनेय पावनभोगनियोग (वाणि) वाकांतेय चित्तवृत्तियोलविं नल (विं गड मोहनां) गरूपं तळेदं गडं प्रचुरपंकजशोभितपद्मणंदिसिद्धान्तमुनीन्द्रचंद्रनुदयं बुधकैरवर्षडमंडनम् ॥१॥ मंत्रणमोक्षसद्गुणगणाब्धिय वृद्धिगे चंद्रनंते वाकांतेय चित्तवल्लिपदपंकजप्तबुधालिहृत्सरोजांतररागरंजितमनं कुलभषणदिव्यसेव्यसैद्धांतमुनीन्द्ररूर्जितयशोज्वलजंगमर्थिकल्परु ॥२॥ १ प्राप्त प्रतियोंमें इस प्रशस्तिमें अनेक पाठभेद पाये जाते हैं। यहाँ पर सहारनपुरकी प्रतिके अनुसार पाठ रखा गया है जिसका मिलान हमें वीरसेवा मंदिरके अधिष्ठाता पं. जुगलकिशोरजी मुख्तारके द्वारा प्राप्त हो सका । केवल हमारी अ. प्रतिमें जो अधिक पाठ पाये जाते हैं वे टिप्पणमें दिये गये हैं। २ अनन्तज्वनोन्त । ३ पदप्पिणनदर्प। ४ प्रहृत् । ५ दिव्यसेव्य । ६ तीर्थदमयस्स्र्थे । ७ महरूहरू। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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