Book Title: Samyaktva Sara Shatak
Author(s): Gyanbhushan Maharaj
Publisher: Digambar Jain Samaj

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Page 14
________________ को प्राप्त कर लेता है । एवं वह इतर सर्व साधारण के लिये नम्रता पूर्वक चल कर पर्वत के समान स्वीकार्य हो लेता है। तथा सूर्य के न होने से अन्धकारमय रात्रि होती है ताकि कोई भी ठीक मार्ग नहीं पाता एवं डरपोक हो कर अकर्मण्य हो रहता है, वैसे ही सम्यक्त्व के न होने से यह संसारी जीव भूल में पड़ कर दिग्भ्रान्त होते हुये भयभीत बन रहा है। हमारे आगम प्रन्यो में भय-इस लोक भय, परलोक भय, वेदना भय, अरक्षा भय, अगुप्ति भय, मरण भय, और अकस्माद्धय के भेद से सात प्रकार का बतलाया गया है । जिसके कि फंदे में यह संसारी जीव फसा हुआ है । परन्तु सम्यक्त्वशाली आत्मा उससे किलकुल रहित होता है वह कैसे सो बताते हैं - संसारी जीव-अपने वर्तमान शरीर को तो इहलोक और आगे प्राप्त होने वाले शरीर को परलोक समझता है अतः वह सोचता है कि यह दृश्यमान इतर सब लोग न मालूम मेरा (इस शरीर का) क्या बिगाड़ करदें ऐसा तो इस लोक का भय इसे बना रहता है। और परलोक में न मालूम क्या होगा इस प्रकार आगे का भय बना रहता है। परन्तु आत्मानुभवी सम्यक्त्वी जीव समझता है कि मेरा लोक तो चेतन्य मात्र है वह तो मेरा मेरे साथ है उस पर किसी का कोई चारा नहीं चल सकता । उसके सिवाय और सब परलोक है उससे वस्तुतः मेरा कोई लेन देन सम्बन्ध नहीं है फिर डर कैसा कुछ भी नहीं । शारीरिक विकार का नाम वेदना है।

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