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३०-सम्यक्त्वपराक्रम (१) होता है । इसी प्रकार कभी-कभी बाहर से राग-द्वेष प्रतीत नही होते फिर भी भीतर राग-द्वेष भरे रहते है। ऐसी स्थिति मे' राग-द्वेष हैं या नहीं, इस बात का निश्चय ज्ञानी ही कर सकते हैं। फिर भी व्यवहार द्वारा जिस राग-द्वेष को पहचाना जा सकता है, उन्हे पहचानने का प्रयत्न तुम्हे करना चाहिए और पहचान कर छोडने का उद्योग करना चाहिए।
जो आत्मा को पतित करे और साथ ही जगत् का भी अकल्याण करे वह राग-द्वेष है । इन लक्षणो से राग-द्वेष की पहचान हो जाती है । अतएव जिन कार्यों से जगत् को हानि पहुचे और आत्मा पतित हो, ऐसे कार्य त्याज्य समझने चाहिए । इसी प्रकार वही कार्य राग-द्वोष रहित है जिनसे अपनी आत्मा उन्नत हो और जगत् का भी कल्याण हो । - कदाचित् कोई यह दावा करे कि मुझमे विशेष ज्ञान है और अमुक कार्य या क्रिया किये बिना ही सिर्फ ज्ञान द्वारा हो मैं आत्मा का कल्याण कर लूंगा; तो शास्त्र बतलाता है कि उसका यह दावा सही नही है। मान लिया जाये कि कोई ज्ञान द्वारा अपना कल्याण कर सकता है, यद्यपि अकेले ज्ञान से सिद्धि प्राप्त नहीं हो सकती, तो भी लोकहित की दृष्टि से श्रेयस्कर कार्यों का त्याग कर देना ठीक नही । मतलब यह है कि जिससे आत्मा का भी कल्याण हो और जगत् का भी हित हो, वह व्यावहारिक दृष्टि से रागद्वेष को जीतना कहलाता है। अप्रमत्तता प्राप्त करने के लिए राग-द्वेष को जीतना ही चाहिए ।
अब इस अध्ययन के नाम के सम्बन्ध में विचार करे। कोई-कोई नाम सिर्फ लोकव्यवहार के लिए ही होता है ।