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८२-सम्यक्त्वपराक्रम (१)
नही समझ सकते कि भगवान की वाणी मे क्या माहात्म्य है ? अतएव साधारण जनता के लिये एक मात्र लाभप्रद बात यही है कि वे उस पर अविचल भाव से श्रद्धा स्थापित करें । जब तक श्रद्धा उत्पन्न न होगी; तब तक लाभ भी नही हो सकता । इस कारण श्रद्धा को सब से अधिक महत्व दिया गया है । गीता मे भी कहा है
श्रद्धामयोऽयं पुरुषो, यो यच्छद्धः स एव सः ।
अर्थात्-पुरुष श्रद्धामय है-श्रद्धा का ही पूज है और जो जैसी श्रद्धा करता है वह वैसा ही बन जाता है । यह बात व्यवहार से भी सिद्ध होती है। दर्जी के काम की श्रद्धा रखने वाला दर्जी बन जाता है और जो लुहार का काम करने की श्रद्धा रखता है वह लुहार बन जाता है । साधारण रूप से सिलाई का काम तो सभी कर लेते है परन्तु इस प्रकार का काम करने से कोई दर्जी नही बन जाता और न कोई अपने आपको दर्जी मानता ही है। इसका कारण यह है कि सिलाई का काम करते हुए भी हृदय में उस काम की श्रद्धा नही है अर्थात् वह काम श्रद्धानपूर्वक नही किया जाता । अगर वही सीने का काम श्रद्धानपूर्वक किया जाये तो दर्जी बन जाने में कोई सदेह नही किया जा सकता।
कहने का आशय यह है कि सर्वप्रथम भगवानरूपी महावैद्य की वाणीरूपी दवा पर श्रद्धा रखने की आवश्यकता है । सिद्धान्तवाणी के विरुद्ध विचार नही होना चाहिए और साथ ही वाणी के ऊपर प्रतीति-विश्वास होना चाहिए। इस सिद्धान्तवाणी के प्रभाव से पापियो का भी कल्याण हो सकता है, ऐसा विश्वास दृढ होना चाहिए । भगवत्वाणी