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{ । • पहला बोल-१०३ लिए नहीं है। इस प्रकार की कुत्सित कामना से अगर कोई साधु हो जाये तो भी उससे कुछ लाभ नहीं होता।
शास्त्र मे बतलाया गया है कि कितनेक अभव्य जीव भी साधु बन जाते हैं । प्रश्न किया जा सकता है कि अभव्य होने के कारण जिसे धर्म के प्रति श्रद्धा ही नहीं होगी, वह साधु कैसे बन जायेगा ? इस प्रश्न के उत्तर मे कहा गया है कि वास्तव मे अभव्य को धर्मश्रद्धा तो होतो नहीं किन्तु साधुओं की महिमा-पूजा. देखकर अपनी-महिमा-पूजा के लिए वह साधु का वेष धारण कर लेते हैं। उसके बाद. साधु की क्रिया भी इसी उद्देश्य से करते है कि अगर हम साधु की क्रिया नहीं करेगे तो हमारी पूजा-प्रतिष्ठा नहीं होगी। मगर इस प्रकार का साधुत्व क्या मोक्ष के हिसाब में गिना जा सकता है ? जब ऐसा साधुपन भी मोक्ष के हिसाब' में नही गिना जा सकता तो ऐसे ही आशय से की गई तुम्हारी धर्मक्रिया मोक्ष के लेखे मे आ सकती है ? कदापि नहीं। इसलिए अगर किसी कुत्सित उद्देश्य से तुम" धर्मकार्य "करते हो तो उसे बदल डालो।
6 छद्मस्थता के कारण धर्मक्रिया द्वारा मानप्रतिष्ठा प्राप्त करने की इच्छा उत्पन्न हो जाना संभव है, मगर इस इच्छा पर विजय भी प्राप्त की जा सकती है। इस इच्छा का जीतना अगर सभव न होता तो जीतने का उपदेश ही क्यो दिया जाता ? सौर में अगर शत्रु हैं तो उन्हे जीतने के उपाय भी हैं, किन्तु जो मनुष्य पहले से हो कायर बन जाता है वह उपाय होते हुए भी शत्रुओं को जीतने में असमर्थ रहता है । भगवान् कहते हैं-ससारं मे काम-लालसा तो भरी हुई है ही, मगर उसे जीत लिया जाये तो आत्मा का कल्याण हो सकता है । अगर कामलालसा जीतने मे पहले ही निव