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पहला बोल-११६
मान, माया और लोभ क्या है ? जिसका अन्त न आये और जो अधिक-अधिक बढता ही चला जाये ऐसे क्रोध, मान, माया और लोभ को शास्त्रकार अनन्तानुबधी क्रोध, मान, माया और लोभ कहते है । जिसके होने पर जन्म-मरण का अन्त नहीं आता, वह अनन्तानुवधी क्रोध आदि कहलाते है। एक के बाद एक ऊपरा-ऊपरी जो बध होता ही रहता है वह भी अनन्तानुबधी कषाय है।
अनन्तानुबधी क्रोध, मान, माया और लोभ किस प्रकार के होते हैं, यह बात समझाते हुए शास्त्रकार कहते है
जैसे विजली पड़ने से छिन्नभिन्न हआ पहाड फिर आपस मे नही मिलता, इसी प्रकार हृदय मे ऐसा क्रोध उत्पन्न हो कि, जिसके प्रति क्रोध हुआ है उसके साथ किसी भी प्रकार पुन प्रेम-सम्बन्ध या समभाव उत्पन्न न हो, वह अनन्तानुवधी क्रोध है ।
जैसे पत्थर का खभा टूट भले ही जाये मगर नम नही सकता, उसी प्रकार जो मान कितना ही समझाने पर भी विनम्र न बने, वह अनन्तानुबधी मान कहलाता है ।
जैसे बास की जड मे गाँठ मे गाँठ होती है, उसी प्रकार कपट पर कपट करना और ऐसा माया जाल होना कि जिसमे दूसरे भी फंस जाएँ, वह अनन्तानुवधी माया है ।
जैसे किरमिची रग' के रेशम को भले ही जला दिया जाये, मगर वह अपना रग नही छोडता, उसी प्रकार सर्वम्व नाश होने पर भी जो लोभ छूटता नही, वह अनन्तानुबधी लोभ है।
धर्म पर दृढ श्रद्धा उत्पन्न होने से और हृदय में सवेग