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१६२-सम्यक्त्वपराक्रम (१)
लोकोत्तर पुरुष धर्म के कारण ही लोकोत्तर पुरुष के रूप में प्रसिद्ध हये है । इस अवसर्पिणीकाल में हये तीर्थडारो को हम लोग धर्मजागति करने के कारण ही पूजनीय मानते हैं। उन महापुरुपो ने धर्म का द्वार खोलन के लिये खूब पुरुषार्थ किया था । धर्म को जागति करने के लिये ही उन्होने राजपाट तथा कुटुम्बीजनो का परित्याग किया था। विविध प्रकार के उपसग, परीपह सहन किये थे और काम-सैन्य के साथ भीषण युद्ध करके काम-शत्रुओ पर विजय प्राप्त की थी। इस प्रकार विकार-शत्रुओ पर विजय प्राप्त करके उन्होने जो केवलज्ञान प्राप्त किया था उसका उपयोग धर्मप्रचार द्वारा जगत्कल्याण करने मे किया।
जिन भगवान् महावीर द्वारा प्ररूपित सूत्र का श्रवण याप कर रहे हैं, उन भगवान् के जीवन पर दृष्टिपात किया जाये तो मालूम होगा कि वर्मोपदेश देने से पहले उन्होने क्या-क्या किया था ? और किस समय उन्होंने धर्म का उपदेश दिया था ?
भगवान् महावीर पहले ही चार ज्ञान के स्वामी थे। उनका अवधिज्ञान इतना उज्ज्वल था कि माता के गर्भ मे रहते हुये ही वे जानते थे कि 'मैं पहले कहाँ था और कौनकोनसा भव भोगकर यहाँ आया हू ।' उनके अवधिज्ञान मे ऐसी-ऐसी बाते स्पष्ट रूप से प्रतिभापित होती थी । दीक्षा लते ही उन्हे मनःपर्यय ज्ञान भी प्राप्त हो गया था। फिर भी उन्होने तत्काल धर्मोपदेश देना आरम्भ नही कर दिया था । सयम की परिपूर्ण साधना के पश्चात केवलज्ञान प्राप्त होने पर ही उन्होंने धर्मदेशना देना आरम्भ किया था ।